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________________ पञ्चदश अध्ययन ४४५ छाया - ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अभिनिष्क्रमणाभिप्रायं ज्ञात्वा भवनपतिवाणव्यन्तरज्योतिषिविमानवासिनो देवाश्च देव्यश्च स्वकैः २ रूपैः स्वकैः २ नेपथ्यैः स्वकैः २ चिन्हैः सर्वर्द्धया सर्वद्युत्या सर्वबलसमुदयेन स्वकानि २ यानविमानानि आरोहन्ति स्वकानि यानविमानानि आरुह्य यथाबादरान् (असारान्) पुद्गलान् परिशातयन्ति परिशात्य यथासूक्ष्मान् पुद्गलान् पर्याददते पर्यादाय ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति ऊर्ध्वम् उत्पत्य तया उत्कृष्टया शीघ्रया चपलया त्वरितया दिव्यया देवगत्या अधः अवपतन्तः तिर्यग् असंखेयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रमन्तः २ यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपः तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यत्रैव उत्तरक्षत्रियकुण्डपुरसन्निवेशः तत्रैव उपागच्छन्ति उत्तरक्षत्रियकुण्डपुरसन्निवेशस्य उत्तरपौरस्त्यो दिग्भागः तत्रैव झटिति वेगेन अवपतिताः । पदार्थ - णं-वाक्यालंकारार्थक है। तओ-तत् पश्चात् । समणस्स श्रमण। भगवओ - भगवान । महावीरस्स-महावीर के | अभिनिक्खमणाभिप्पायं-दीक्षा लेने के अभिप्राय को। जाणित्ता - जानकर । भवणवइभवनपति। वा०-वाणव्यन्तर। जो० - ज्योतिषी । विमाणवासिणो - वैमानिक । देवा देव । य-और। देवीओ-देवियां । सएहिं २-अपने २। रूवेहिं रूपों से । सएहिं २ - अपने २ । नेवत्थेहिं - वेशों से । सए० २ चिंधेहिं - अपने २ चिन्हों से युक्त होकर तथा। सव्विड्ढीए - सर्व ऋद्धि से । सव्वजुईए- सर्व ज्योति से । सव्वबलसमुदएणं - सर्व बल समुदाय से। सयाई २ जाणविमाणाइं - अपने २ विमानों पर । दुरूहंति - चढ़ते हैं। सया० - अपने २ विमानों पर। दुरूहित्ता - चढ़कर। अहाबायराई - यथा बादर अर्थात् स्थूल- निस्सार । पुग्गलाई - पुद्गलों को । परिसाडंतिगिरा कर। अहासुहुमाई-सूक्ष्म । पुग्गलाई - पुद्गलों को । परियाईति २ - ग्रहण करते हैं और उन्हें ग्रहण करके । उड्ढं- - ऊपर ऊंचे। उप्पयंति-उत्पतन करते हैं। उड्ढं उप्पइत्ता-ऊंचे उत्पतन कर के । ताए उस । उक्किट्ठाएउत्कृष्ट। सिग्घाए-शीघ्रं । चवलाए - चपल । तुरियाए - त्वरित । दिव्वाए- दिव्य । देवगईए-देव गति से । अहेणंनीचे की ओर। ओवयमाणा २-उतरते हुए । तिरिएणं तिर्यक् लोक में स्थित । असंखिज्जाई - असंख्यात । दीवसमुद्दाई - द्वीप समुद्रों को । वीइक्कममाणा व्यतिक्रम करते हुए उल्लंघते हुए। जेणेव - जहां पर । जंबुद्दीवे वे - जम्बू द्वीप नामाद्वीप है । तेणेव वहां पर । उवागच्छंति-आते हैं, आकर । जेणेव - जहां पर । उत्तरखत्तियकुण्डपुरसंनिवेसे उत्तर क्षत्रिय कुंडपुर सन्निवेश है । तेणेव वहां । उवागच्छंति-आते हैं फिर । उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स - उत्तर क्षत्रिय कुंडपुर सन्निवेश के । उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए - उत्तर पूर्व दिशा के मध्य भाग अर्थात् ईशान कोण में जो स्थान है। तेणेव - वहां पर । अतिवेगेण - बड़े तीव्र वेग से । ओवइयाउत्तरते हैं। मूलार्थ - तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के दीक्षा लेने के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देब और देवियां अपने-अपने रूप, वेष और चिन्हों से युक्त होकर तथा अपनी २ सर्व प्रकार की ऋद्धि, द्युति और बल समुदाय से युक्त होकर अपने २ विमानों पर चढ़ते हैं और उनमें चढ़कर बादर पुद्गलों को छोड़कर सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करके ऊंचे होकर उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य प्रधान देवगति से नीचे उतरते
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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