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________________ ४४४ श्री आचारान सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध कुछ प्रतियों में 'वेसमणकुण्डधारी' के स्थान पर 'वेसमणकुण्डलधरा' पाठ भी उपलब्ध होता है। पांचवीं गाथा में लौकान्तिक देवों के निवास स्थान का उल्लेख किया गया है। अरुणोदधि समुद्र से उठकर तमस्काय ब्रह्म (५ वें) देवलोक तक गई है और उस में नव तरह की कृष्ण राजिएं हैं वे ही नव लौकान्तिक देवों के विमान माने गए हैं। उन्हीं विमानों में लौकान्तिक देवों की उत्पत्ति होती है। ब्रह्म देवलोक के समीप होने से उन्हें लौकान्तिक कहते हैं। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि लोकसंसार का अन्त करने वाले अर्थात् एक भव करके मोक्ष जाने वाले होने के कारण इन्हें लौकान्तिक कहते हैं। ये नव प्रकार के होते हैं- १ सारश्वत, २ आदित्य, ३ वन्हय, ४ वरुण, ५ गर्दतोय, ६ त्रुटित, ७ अव्याबाध, ८ आग्नेय और ९ अरिष्ट।। छठी गाथा में यह बताया गया है कि लौकान्तिक देव अपने आवश्यक आचार का पालन करने के लिए तीर्थंकर भगवान को तीर्थ की स्थापना करने की प्रार्थना करते हैं। यह तो स्पष्ट है कि गृहस्थ अवस्था में भी भगवान तीन ज्ञान से युक्त होते हैं और अपने दीक्षा काल को भली-भांति जानते हैं। अतः उन्हें सावधान करने की आवश्यकता ही नहीं है। फिर भी जो लौकान्तिक देव उन्हें प्रार्थना करते हैं, वह केवल अपनी परम्परा का पालन करने के लिए ही ऐसा करते हैं। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका चारों को तीर्थ कहा गया है और इस चतुर्विध संघ रूप तीर्थ की स्थापना करने के कारण ही भगवान को तीर्थंकर कहते हैं। . ____ इसके आगे का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं। मूलम्- तओ णं समणस्स भ० म० अभिनिक्खमणाभिप्पायं जाणित्ता भवणवइवा. जो विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहिं २ रूवेहिं सएहिं २ नेवत्थेहिं सए० २ चिंधेहिं सव्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलसमुदएणं सयाइं २ जाणविमाणाई दुरूहंति सया दुरूहित्ता अहाबायराइं पुग्गलाई परिसाडंति २ अहासुहुमाइंपुग्गलाइं परियाईति २ उड्ढं उप्पयंति उड्ढं उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहे णं ओवयमाणा २ तिरिएणं असंखिज्जाइंदीवसमुद्दाई वीइक्कममाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छंति २ जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उवागच्छंति, उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तेणेव झत्ति वेगेण ओवइया। १ लोकान्ते- संसारान्ते भवाः लोकान्तिकाः एकावतारत्वात्। - कल्पसूत्र, सुबोधिका वृत्ति (उपा० विनय विजय जी) . २ तित्थं भंते ! तित्थे तित्थंकरे तित्थे ? गोयमा!अरहाताव नियमा तित्थंगरेति। तित्थे पुण चउवण्णाइण्णे समणसंघे, तंजहा-समणा, समणीओ, सावगा, सावियाओ। - भगवती सूत्र २०,८॥
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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