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________________ पञ्चदश अध्ययन ४४३ असंख्यात विस्तार वाले जानने चाहिएं। पदार्थ- एए देवनिकाया-यह सब देवों का समूह। भगवं-भगवान। जिणवरं-जिनवर। वीरंवीर को। बोहिंति-बोध देते हैं। अरिहं-हे अर्हन् ! सव्वजगजीवहियं-सर्व जगत के जीवों को हितकारी। तित्थं-तीर्थ की। पवत्तेहि-प्रवृत्ति करो ? अर्थात् संसारवर्ति समस्त जीवों के हित के लिए धर्म रूप तीर्थ की स्थापना करो। मूलार्थ-यह सब देवों का समूह जिनेश्वर भगवान महावीर को बोध देने के लिए सविनय निवेदन करते हैं कि हे अर्हन् देव ! आप जगत् वासी जीवों के हितकारी तीर्थ-धर्म रूप तीर्थ की स्थापना करो। . हिन्दी विवेचन- पहली तीन गाथाओं में यह बताया गया है कि भगवान एक वर्ष तक प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक प्रहर तक एक करोड़, आठ लाख स्वर्ण मुद्रा का दान करते हैं। उन्होंने एक वर्ष में ३८८ करोड़ ८० लाख स्वर्ण मुद्रा का दान दिया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि केवल साधु को दिया जाने वाला आहार-पानी वस्त्र-पात्र आदि का दान ही महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि अनुकम्पा दान भी अपना महत्व रखता है। यदि दीन दुःखी एवं अपाहिज को दान देना,पाप का एवं संसार बढ़ाने का कार्य होता, तो संसार का त्याग करने वाले तीर्थंकर ऐसा क्यों करते। भगवान द्वारा दिया गया दान इस बात को स्पष्ट करता है कि अनुकम्पा दान भी पुण्य बन्ध एवं आत्म -विकास का साधन है। इससे आत्मा की दया एवं अहिंसक भावना का विकास होता है और इस वृत्ति का विकास आत्मा के लिए अहितकर नहीं हो सकता। आगमों में भी अनेक स्थलों पर अनुकम्पा दान का उल्लेख मिलता है। तुंगिया नगरी के श्रावकों की धर्म भावना एवं उदारता का उल्लेख करते हुए उनके लिए 'अभंगद्वारे' का विशेषण दिया गया है। अर्थात् उनके घर के दरवाजे अतिथियों के लिए सदा खुले रहते थे। इससे स्पष्ट होता है कि वे बिना किसी सांप्रदायिक एवं जातीय भेद भाव के अपने द्वार पर आने वाले प्रत्येक याचक को यथाशक्ति दान देते थे। अतः तीर्थंकरों के द्वारा दिए जाने वाले दान को केवल प्रशंसा प्राप्त करने के लिए दिया जाने वाला दान कहना उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि, महापुरुष कभी भी प्रशंसा के भूखे नहीं होते। वे जो कुछ भी करते हैं, दया एवं त्याग भाव से प्रेरित होकर ही करते हैं। अतः भगवान के दान से उनकी उदारता, जगत्वत्सलता एवं अनुकम्पा दान के महत्व का उज्ज्वल आदर्श हमारे सामने उपस्थित होता है, जो प्रत्येक धर्म-निष्ठ सद्गृहस्थ के लिए अनुकरणीय है। - चौथी गाथा में दो बातों का उल्लेख किया गया है- १. भगवान एक वर्ष में जितना दान करते हैं, उस धन की व्यवस्था वैश्रमण देव करते हैं। उनके आदेश से उनकी आज्ञा में रहने वाले लोकपाल देव उनके कोष को भर देते हैं। यह परंपरा अनादि काल से चली आ रही है। प्रत्येक तीर्थंकर के लिए ऐसा किया जाता है। २. प्रत्येक तीर्थंकर भगवान के हृदय में जब दीक्षा लेने की भावना पैदा होती है, तब लौकान्तिक देव अपनी परंपरा के अनुसार आकर उन्हें धर्म तीर्थ की स्थापना करने के लिए प्रार्थना करते हैं।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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