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________________ ४४० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध में अतिसुकुमार होने से विदेह सुकुमाल भी कहते हैं ऐसे भगवान।तीसंवासाइं-तीस वर्ष पर्यन्त। विदेहंसित्तिकटुघर में इस प्रकार से किया। अगारमझे-घर के मध्य में। वसित्ता-निवास कर के। अम्मापिऊहिं-माता-पिता के। कालगएहि-स्वर्गवास होने और। देवलोगमणुपत्तेहिं-देवलोक को प्राप्त करने से। समत्तपइन्ने-भगवान की प्रतिज्ञा समाप्त हो गई। भगवान ने गर्भ में यह प्रतिज्ञा की थी कि माता-पिता के रहते हुए दीक्षा ग्रहण नहीं करूंगा। अतः अब इस प्रतिज्ञा के समाप्त होने पर।चिच्चाहिरण्णं-भगवान हिरण्य को छोड़ कर।चिच्चा सुवण्णं-सुवर्ण को छोड़ कर। चिच्चा बलं-बल सेना को छोड़ कर। चिच्चा वाहणं-वाहन को छोड़ कर अर्थात् पालकी आदि की सवारी का त्याग कर के तथा। धणकणगरयणसंतसारसावइज-धन, कनक, रत्न आदि सार भूत लक्ष्मी को। विच्छड्डित्ता-छोड़ कर। विग्गोवित्ता-धन को प्रकट कर तथा। विसाणित्ता-दान देकर। दायारेसु दाणं दाइत्ता-याचकों को देकर। परिभाइत्ता-ज्ञाति जनों में बांट कर और। संवच्छरं दलइत्ता-साम्वत्सरिक दान देकर। जे-जो। से-वह। हेमंताणं-हेमन्त ऋतु का। पढमे मासे-प्रथम मास। पढमे पक्खे-प्रथम पक्ष। मग्गसिरबहुले-मार्ग शीर्ष कृष्ण पक्ष। तस्स णं-उस। मग्गसिरबहुलस्स-मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की। दसमीपक्खेणं-दशमी के दिन। हत्थुत्तरा-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ। जोग-चन्द्रमा का योग आने पर। अभिनिक्खमणभिप्पाए यावि होत्था-भगवान के मन में दीक्षा लेने का संकल्प उत्पन्न हुआ। मूलार्थ-उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर प्रसिद्ध ज्ञात पुत्र, ज्ञात कुल में चन्द्रमा के समान, वज्रऋषभ नाराच संहनन के धारक, त्रिशला देवी के पुत्र, त्रिशला माता के अंगजात, घर में सुकुमाल अवस्था में रहने वाले तीस वर्ष तक घर में निवास करके माता-पिता के देव लोक हो जाने पर अपनी ली हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने से हिरण्य, स्वर्ण-बल और वाहन, धन-धान्य, रत्न आदि प्राप्त वैभव को त्यागकर, याचकों को यथेष्ट दान देकर तथा अपने सम्बन्धियों में यथायोग्य विभाग करके एक वर्ष पर्यन्त दान देकर हेमन्त ऋतु के प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर भगवान ने दीक्षा ग्रहण करने का अभिप्राय प्रकट किया। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भगवान के दीक्षा संबंधी संकल्प का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि भगवान के माता-पिता का स्वर्गवास हो जाने पर भगवान ने सम्पूर्ण वैभव का त्याग करके दीक्षित होने का विचार प्रकट किया। जिस समय भगवान गर्भ में आए थे, उस समय उन्होंने यह सोचकर अपने शरीर को स्थिर कर लिया कि मेरे हलन-चलन करने से माता को कष्ट न हो। परन्तु इस क्रिया का माता के मन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। गर्भ का हलन-चलन बन्द हो जाने से उसे यह सन्देह होने लगा कि कहीं मेरा गर्भ नष्ट तो नहीं हो गया है। और परिणाम स्वरूप माता का दु:ख और बढ़ गया और उसे दुःखित देखकर सारा परिवार शोक में डूब गया। अपनी अवधि ज्ञान से माता की इस दुखित अवस्था को देखकर भगवान ने हलन-चलन शुरु कर दिया और साथ में यह प्रतिज्ञा भी ले ली कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा। वे अपने लिए अपनी माता को जरा भी कष्ट देना नहीं चाहते थे। अब माता-पिता के स्वर्गवास होने पर उनकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई, अतः वे अपने
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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