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________________ ४०४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध वाइत्तवज्जा-वादित्रों को छोड़ कर।रूवपडिमावि-रूपप्रतिज्ञा के विषय में समझें।पंचमं सत्तिक्कयं-पांचवीं सप्तकका समाप्त। त्तिबेमि-ऐसा मैं कहता हूं। मूलार्थ-साधु या साध्वी फूलों से निष्पन्न स्वस्तिकादि, वस्त्रों से निष्पन्न पुत्तलिकादि, पुरिम निष्पन्न पुरुषाकृति और संघात निष्पन्न चोलकादि, इसी प्रकार काष्ठ से निर्मित पदार्थ, पुस्तकें, चित्र, मणियों से, हाथी दांत से, पत्रों से तथा बहुत से पदार्थों से निर्मित सुन्दर एवं सुरूप पदार्थों के विविध रूपों को देखने के लिए जाने का मन से संकल्प भी न करे। शेष वर्णन शब्द अध्ययन की तरह जानना चाहिए। केवल वाद्ययन्त्र को छोड़कर अन्य वर्णन रूप प्रतिज्ञा के समान ही जानना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूं। पंचम सप्तकका समाप्त। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में रूप-सौन्दर्य को देखने का निषेध किया गया है। इसमें बताया गया है कि चार कारणों से वस्तु या मनुष्य के सौन्दर्य में अभिवृद्धि होती है- १-फूलों को गूंथकर उनसे माला, गुलदस्ता आदि बनाने से पुष्पों का सौन्दर्य एवं उन्हें धारण करने वाले व्यक्ति की सुन्दरता भी बढ़ जाती है। २ वस्त्र आदि से आवृत्त व्यक्ति भी सुन्दर प्रतीत होता है। विविध प्रकार की पोशाक भी सौन्दर्य को बढ़ाने का एक साधन है। ३ विविध सांचों में ढालने से आभूषणों का सौन्दर्य चमक उठता है और उन्हें पहन कर स्त्री-पुरुष भी विशेष सुन्दर प्रतीत होने लगते हैं। ४ वस्त्रों की सिलाई करने से उनकी सुन्दरता बढ़ जाती है और विविध फैशनों से सिलाई किए हुए वस्त्र मनुष्य की सुन्दरता को और अधिक चमका देते हैं। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि विविध संस्कारों से पदार्थों के सौन्दर्य में अभिवृद्धि हो जाती है। साधारण सी लकड़ी एवं पत्थर पर चित्रकारी करने से वह . असाधारण प्रतीत होने लगती है। उसे देखकर मनुष्य का मन मोहित हो उठता है। इसी तरह हाथी दांत, कागज, मणि आदि पर किया गया विविध कार्य एवं चित्रकला आदि के द्वारा अनेक वस्तुओं को देखने योग्य बना दिया जाता है और कला कृतियां उस समय के लिए नहीं, बल्कि जब तक वे रहती हैं मनुष्य के मन को आकर्षित किए बिना नहीं रहती हैं। इससे उस युग की शिल्प की एक झांकी मिलती है, जो उस समय विकास के शिखर पर पहुंच चुकी थी। उस समय मशीनों के अभाव में भी मानव वास्तु-कला एवं शिल्पकला में आज से अधिक उन्नति कर चुका था। इन सब कलाओं एवं सुन्दर आकृतियों तथा दर्शनीय स्थानों को देखने के लिए जाने का निषेध करने का तात्पर्य यह है कि साधु का जीवन साधना के लिए है, आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करने के लिए है। अत: यदि वह इन सुन्दर पदार्थों के देखने के लिए इधर-उधर जाएगा या दृष्टि दौड़ाएगा तो उससे चक्षु इन्द्रिय का पोषण होगा, मन में राग-द्वेष या मोह की उत्पत्ति होगी और स्वाध्याय एवं ध्यान की साधना में विघ्न पड़ेगा। अतः संयम निष्ठ साधु को सदा अध्यात्म चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। उसे अपने मन एवं दृष्टि को इधर-उधर नहीं दौड़ाना चाहिए। चक्षु इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना साधना का मूल उद्देश्य है। अतः साधु को विविध वस्तुओं एवं स्थानों के रूप सौन्दर्य को देखने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। ॥द्वादश अध्ययन समाप्त।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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