________________
३९८
श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध को सुनने की प्रतिज्ञा से वहां जाने के लिए मन में विचार न करे। एवं अट्टारी, प्राकार, प्राकार के ऊपर की फिरनी और नगर के मध्य का आठ हाथ प्रमाण राजमार्ग, द्वार तथा नगर में प्रवेश करने का बड़ा द्वार इत्यादि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए भी जाने का मन में भाव न लाए।
इसी तरह नगर के त्रिपथ, चतुष्पथ, बहुपथ और चतुर्मुख मार्ग, इत्यादि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाने का भी मन में विचार न करे। इसी भांति भैंसशाला, वृषभशाला, घुड़शाला, हस्तीशाला और कपिंजल पक्षी के ठहरने के स्थान आदि पर होने वाले शब्दों को सुनने के लिए भी जाने का विचार न करे। तथा वर-वधू के मिलने का स्थान (विवाहवेदिका) घोड़ों के यूथ का स्थान, हाथी-यूथ का स्थान यावत् कपिंजल पक्षी का स्थान इत्यादि स्थानों के शब्दों को सुनने के लिए भी जाने का विचार न करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को खेतों में, जंगल में, घरों में या विवाह आदि उत्सव के समय होने वाले गीतों को या पशुशालाओं एवं अन्य प्रसंगों पर होने वाले मधुर एवं मनोज्ञ गीतों को सुनने के लिए उन स्थानों पर जाने का संकल्प नहीं करना चाहिए। ये सब तरह के सांसारिक गीत मोह पैदा करने वाले हैं, इनके सुनने से मन में विकार भाव जागृत हो सकता है। अतः संयमनिष्ठ साधु-साध्वी को इनका श्रवण करने के लिए किसी भी स्थान पर जाने का संकल्प नहीं करना चाहिए।
इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि उस युग में विवाहोत्सव मनाने की परम्परा थी और वर-वधू के मिलन के समय राग-रंग को बढ़ाने वाले गीत भी गाए जाते थे। ,
प्रस्तुत सूत्र से उस युग की सभ्यता का स्पष्ट परिज्ञान होता है और विभिन्न उत्सवों एवं उन पर गीत आदि गाने की परम्परा का भी परिचय मिलता है। उस युग में भी जनता अपने मनोविनोद के लिए विशिष्ट अवसरों पर गीत आदि गाकर अपना मनोविनोद करती थी। अतः साधु को इन गीतों को सुनने के लिए जाना तो दूर रहा, परन्तु उनके सुनने की अभिलाषा भी नहीं करनी चाहिए।
इस सम्बन्ध में कुछ और बातें बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-से भि० जाव सुणेइ, तंजहा-अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणियट्ठाणाणि वा महताऽऽहयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुड़ियपड़प्पवाइयट्ठा
णाणि वा अन्न तह सद्दाइं नो अभिसं०॥से भि० जाव सुणेइ, तं कलहाणि वा डिंबाणि वा डमराणि वा दोरजाणि वा वेर विरुद्धर अन्न तह सद्दाइं नो०॥ से भि० जाव सुणेइ, खुड्डियं दारियं परिवुत्तमंडियं अलंकियं निवुज्झमाणिं पेहाए एगंवा पुरिसं वहाए नीणिजमाणं पेहाए अन्नयराणि वा तह नो अभि०॥ से भि० अन्नयराइं विरूव० महासवाई एवं जाणेजा तंजहा-बहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खूणि वा बहुपच्चंताणि वा अन्न तह विरूव महासवाई