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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध । उपाश्रय के एकान्त स्थान में जाए और जहां पर न कोई देखता हो और न कोई आता-जाता हो तथा जहां पर द्वीन्द्रियादि जीव-जन्तु एवं मकड़ी आदि के जाले भी न हों, ऐसी अचित्त भूमि पर बैठकर साधु उच्चार प्रस्रवण का परिष्ठापन करे, उसके पश्चात् वह उस पात्र को लेकर एकान्त स्थान में जाए जहां पर न कोई आता-जाता हो और न कोई देखता हो, जहां पर किसी जीव की हिंसा न होती हो यावत् जल आदि न हो, उद्यान-बाग की अचित्त भूमि में अथवा अग्नि से दग्ध हुए स्थंडिल में.इसी प्रकार के अन्य अचित्त स्थंडिल में -जहां पर किसी भी जीव की विराधना न होती हो, साधु मल-मूत्र का परित्याग करे। इस प्रकार साधु और साध्वी का समग्र आचार वर्णित हुआ है जो कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप अर्थों में और पांचों समितियों से युक्त है और साधु इन के पालन में सदैव प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार मैं कहता हूं।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि साधु को एकान्त.एवं निर्दोष और निर्वद्य भूमि पर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए। जिस स्थान पर कोई व्यक्ति आता-जाता हो या देखता हो तो ऐसे स्थान पर मल-मूत्र नहीं करना चाहिए। क्योंकि, इससे साधु निस्संकोच भाव से मल-मूत्र का त्याग नहीं कर सकेगा, उसकी इस क्रिया में कुछ रुकावट पड़ेगी, जिससे कई तरह के रोग उत्पन्न हो सकते हैं।
और देखने वाले व्यक्ति के मन में भी यह भाव उत्पन्न हो सकता है कि यह साधु कितना असभ्य है कि लोगों के आवागमन के मार्ग में ही मल-मूत्र का त्याग करने बैठ गया है। अतः साधु को सब तरह की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर एकान्त स्थान में ही मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए।
प्रस्तुत अध्ययन में मल-मूत्र का त्याग करने के बाद उस स्थान की सफाई का उल्लेख नहीं किया गया । इससे कुछ व्यक्ति यह शंका कर सकते हैं कि जैनधर्म में सफाई को स्थान नहीं दिया गया। परन्तु, वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। यहां सफाई का उल्लेख नहीं करने का कारण यह है कि प्रस्तुत प्रसंग मल-मूत्र का त्याग करने से संबद्ध होने से इसमें सफाई का उल्लेख नहीं आया। परन्तु इसका यह अर्थ लगाना गलत होगा कि जैन साधु मल-मूत्र का त्याग करने के बाद सफाई नहीं करते। निशीथ सूत्र में बताया गया है कि जो साधु या साध्वी शौच जाने के बाद उस स्थान (गुदा) को वस्त्र से साफ करके पानी से साफ नहीं करते या काष्ठ आदि से साफ करते हैं बहुत दूर जाकर साफ करते हैं उन्हें लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है । इससे स्पष्ट है कि साधु जिस स्थान पर शौच गया हो उसे उसी स्थान पर जल आदि से साफ कर लेना चाहिए। वह उस स्थान को साफ किए बिना आगे नहीं बढ़ सकता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें।
॥ दशम अध्ययन समाप्त॥
१ जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिठवेत्ता णं पुच्छइ, ण पुच्छंतं वा साइजइ। जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिट्ठवेत्ता कट्टेण वा कविलेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा पुच्छइपुच्छंतं वा साइजइ। जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिट्ठवित्ता णायमइ णायमंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिठ्ठवेत्ता तत्थेव आयमति आयमंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिट्ठवेत्ता अइदूरे आयमइ, अइदूरे आयमंतं वा साइज्जइ।
- निशीथ सूत्र, ४,१६१,१६५।