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________________ दशम अध्ययन ३९१ समय ध्यान रखा जाता था। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु अपनी साधना के लिए किसी भी प्राणी का अहित नहीं करता। वह प्रत्येक प्राणी की रक्षा करने का प्रयत्न करता है। मल-मूत्र के त्याग के सम्बन्ध में कुछ और आवश्यक बातें बताते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से भि० सयपाययं वा परपाययं वा गहाय से तमायाए एगंतमवक्कमे अणावायंसि असंलोयंसि अप्पपाणंसिजाव मक्कडासंताणयंसि, अहारामंसि वा उवस्सयंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा, से तमायाए एगंतमवक्कमे अणाबाहंसि जावसंताणयंसि अहारामंसि वा झामथंडिल्लंसि वा अन्नयरंसि वा तह थंडिल्लंसि अचित्तंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिजा, एयं खलु तस्स. सया जइज्जासि, तिबेमि॥१६७॥ छाया-सभि स्वकीयं पात्रकं वा परपात्रकं वा गृहीत्वा स तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अनापाते असंलोके अल्पप्राणे यावत् मर्कटासन्ताने यथारामे वा उपाश्रये ततः संयतमेव उच्चारप्रस्रवणं व्युत्सृजेत्, स तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अनाबाधे यावत् सन्तानके यथारामे वा दग्धस्थंडिले वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थंडिले अचित्ते ततः संयतमेव उच्चारप्रस्रवणं व्युत्सृजेत्, एतत् खलु तस्य भिक्षोः २ सामग्र्यं यत् सर्वार्थैः समितः सहितः सदा यतेत इति ब्रवीमि। पदार्थ- से भि०-वह साधु अथवा साध्वी। सयपाययं-स्वकीय पात्र अथवा। परपाययं वापरकीय पात्र को। गहाय-ग्रहण करके।से-वह भिक्षु। तमायाए-उस पात्र को लेकर। एगंतमवक्कमे-एकांत स्थान में जाए और वहां जाकर। अणावायंसि-जहां पर कोई आता-जाता न हो तथा।असंलोयंसि-जहां पर कोई देखता न हो उस स्थान पर। अप्पपाणंसि-जहां पर द्वीन्द्रियादि जीवों का अभाव हो। जाव-यावत्। मक्कडासंताणयंसि-मकड़ी आदि के जाले न हों उस स्थान पर अथवा। अहारामंसि वा-आराम बगीचे आदि की निचली भूमि में तथा। उवस्सयंसि-उपाश्रय में। तओ-तत्पश्चात् साधु। संजयामेव-यतना पूर्वक। उच्चारपासवणं-मल मूत्र का। वोसिरिज्जा-व्युत्सर्ग-त्याग करे फिर। से-वह भिक्षु। तमायाए-उस पात्र को लेकर। एगंतमवक्कमे-एकांत स्थान में चला जाए और वहां जाकर। अणावाहंसि-जहां किसी भी जीव की हिंसा न हो उस स्थान पर। जाव-यावत्। संताणयंसि-मकड़ी आदि का जाला न हो उस स्थान पर। अहारामंसि वा-उद्यान की अचित्त भूमि पर या। ज्झामथंडिल्लंसि वा-दग्ध भूमि पर या। अन्नयरंसि वा-अन्य कोई। तह-इसी प्रकार का। थंडिल्लंसि-स्थंडिल हो तो।अचित्तंसि-जो कि अचित्त है तो उसमें । तओ-तत्पश्चात्। संजयामेव-साधु यतना पूर्वक। उच्चारपासवणं-उच्चार प्रस्रवण-मल मूत्रादि को।वोसिरिजा-त्यागे।खलुनिश्चयार्थक है। एवं-इस प्रकार। तस्स-उस साधु अथवा साध्वी का समग्र आचार हैं। जं-जो। सव्वळेहिंज्ञानदर्शन और चारित्र रूप अर्थों से तथा। समिए-समितियों से। सहिए-सहित होकर इसकी। सया-सदा। जइज्जासि-पालन करने में यत्नशील हो।त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-संयमशील साधु या साध्वी स्वपात्र अथवा परपात्र को लेकर बगीचे या
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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