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________________ ३९० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध त्याग न करे। फांसी देने के स्थान, गीध पक्षी के सामने पड़कर मरने के स्थान, वृक्ष पर से गिर कर मरने के स्थान, पर्वत पर चढ़कर वहां से गिर कर मरने के स्थान, विष भक्षण करने के स्थान, अग्नि में जल कर मरने के स्थान, इस प्रकार के स्थानों पर भी मल-मूत्र का त्याग न करे।और जहां पर बाग-उद्यान, वन, वनखंड, देवकुल, सभा और प्रपा-पानी पिलाने के स्थान आदि हों तो ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्रादि न परठे। कोट की अटारी, राजमार्ग, द्वार, नगर का बड़ा द्वार इन स्थानों पर मल-मूत्रादि का विसर्जन न करे। नगर में जहां पर तीन मार्ग मिलते हों और बहुत से मार्ग मिलते हों, और जो स्थान चतुर्मुख हों ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र का त्याग न करे। इसी प्रकार जहां काष्ठ जलाकर कोयले बनाए जाते हों, क्षार बनाई जाती हो, मृतक जलाए जाते हों, एवं मृतक स्तूप और मृतक चैत्य-मृतक मन्दिर हों, ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र को न परठे। नदी के तीर्थ स्थानों [ तट ] पर, नदी के तीर्थ रूप कर्दम स्थान पर और जल के प्रवाह रूप पूज्य स्थानों में तथा खेत और उद्यान को जल देने वाली नालियों में मल-मूत्र का परित्याग न करे। मिट्टी की नई खानों में, नई गोचर भूमि में,सामान्य गौओं के चरने के स्थानों और खानों में, मल-मूत्रादि का परित्याग न करे। डाल प्रधान शाक के खेतों में, पत्र प्रधान शाक के खेतों में, और मूली-गाजर आदि के खेतों में तथा हस्तंकर नामक वनस्पति के क्षेत्र में, इस प्रकार के स्थानों में भी मल-मूत्र को न त्यागे। बीयक के वन में,शणी के वन में, धातकी (वृक्ष विशेष) के वन में, केतकी के वन में, आम्र वृक्ष के वन में, अशोक वृक्ष के वन में, नाग और पुन्नाग वृक्ष के वन में, चूलक वृक्ष के वन में और इसी प्रकार के अन्य पत्र, पुष्प, फलों, पत्ते तथा बीज और हरी वनस्पति से युक्त वन में मल-मूत्र को न त्यागे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में सार्वजनिक उपयोगी एवं धर्म स्थानों पर मल-मूत्र के त्याग करने का निषेध किया गया है। साधु को शाली (चावल), गेहूं, आदि के खेत में, पशुशाला में, भोजनालय में, आम्र आदि के बगीचों में, प्याऊ में, देव स्थानों पर, नदी पर, कुएं आदि स्थानों पर मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। व्यवहारिक दृष्टि से भी यह कार्य अच्छा नहीं लगता है और उनके रक्षक के मन में क्रोध आ जाने के कारण अनिष्ट होने की ही संभावना रहती है। देवालय, नदी, सरोवर आदि स्थानों को कुछ लोग पूज्य मानते हैं, केवल नदी के पानी को ही नहीं, कुछ लोग उसके कीचड़ को भी पवित्र मानते हैं। इसलिए ऐसे स्थानों पर साधु को मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। कूड़े-कर्कट के ढेर, खड्डे एवं फटी हुई जमीन पर भी न परठे। क्योंकि, वहां परठने से अनेक जीवों की हिंसा होने की सम्भावना है। इसके अतिरिक्त साधु को ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए, जहां लोगों को फांसी दी जाती हो या अन्य तरह से वध किया जाता हो। क्योंकि, उनके मन में घृणा पैदा होने से संघर्ष हो सकता है। इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि साधु सभ्यता एवं स्वच्छता का पूरा ख्याल रखते थे। गांव एवं शहर की स्वच्छता नष्ट न हो तथा उनके प्रति किसी के मन में घृणा की भावना पैदा न हो इसका भी परठते
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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