SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशम अध्ययन ३८९ नइयायतणेसुवा-नदियों के स्थानों में अर्थात् जहां पर लोग एकत्रित होकर तट पर स्नानादि करते हैं और उन्हें तीर्थ भी कहते हैं उन स्थानों में तथा। पंकाययणेसुवा-नदी के पास कीचड़ का स्थान हो, जिसमें लोग तीर्थ का कीचड़ जानकर लोटते हैं और उस कीचड़ को शरीर पर लगाते हैं अथवा। ओघाययणेसु वा-पानी के प्रवाह के स्थानों में तथा तालाब में जल प्रवेश करने वाले मार्ग में। सेयणवहंसि वा-पानी के नाले पर जिससे खेतों को पानी दिया जाता हो या।अन्नयरंसि वा अन्य कोई। तह-इसी प्रकार का। थं०-स्थान हो तो उसमें। नो उ-मल मूत्रादि का त्याग न करे। से भि०-वह साधु या साध्वी।से जं. पुण• जाणे-वह जो फिर स्थंडिलादि भूमि को जाने। नवियासु वा-अथवा नई। मट्टियखणिआसु-मृत्तिका की खानों में। नवियासु वा०-नूतन। गोप्पहेलियासु वा-गौओं के चरने के स्थानों में। गवाणीसु वा-सामान्य गौओं के चरने के स्थानों में। खाणीसु वा-खानों के स्थानों में तथा। अन्नयरंसि वा-अन्य किसी। तह०-ऐसे ही। थं-स्थंडिल में। नो उ-मल मूत्रादि का त्याग न करे। से भि०-वह साधु या साध्वी। से जं-वह जो। पुण-फिर। जाणे०-जाने। डागवच्चंसि वा-जिस सब्जी के पौधों में डालिये अधिक हों या।सागवच्चंसि वा-जिस में पत्ते अधिक हों ऐसे स्थान पर या।मूलगवच्चंसि वा-मूली आदि के खेतों में। हत्थंकरवच्चंसि वा-कपित्थ-वनस्पति विशेष के स्थानों में (कपित्थ-वनस्पति विशेष) तथा। अन्नयरंसि वा-अन्य। तह-तथाप्रकार के स्थान हों तो उन में। नो उ०-मल मूत्रादि का त्याग न करे। से भि०-वह साधु या साध्वी। से जं. पुण जाणेजा-वह फिर स्थंडिल भूमि के सम्बन्ध में जाने। असणवणंसि वा-वीयक नामक वनस्पति के वनों में। सणव-सण (Jute) के वन में।धायइव-धातकी वृक्ष के वनों में। केयइवणंसि-केतकी वृक्षों के वनों में। अंबक-आम्रवृक्ष के वनों में। असोगव०-अशोक वृक्ष के वनों में। नामव-नाग वृक्ष के वनों में। पुन्नागव०-पुन्नाग वृक्ष के वनों में। चुल्लगव०-चुल्लक वृक्ष के वनों में। अन्नयरेसु-तथा अन्य कोई। तह०-इसी प्रकार का स्थान उसमें अर्थात् स्थंडिल में जो। पत्तोवेएसु वा-पत्रों से युक्त हो। पुष्फोवेएसु वा-पुष्पों से युक्त हो। फलोवेएसु वा-फलों से युक्त। बीओवेएसु वा-बीजों से युक्त और। हरिओवेएसु वा-हरि वनस्पति से युक्त ऐसे स्थानों में। नो उ० वा.-मल मूत्रादि का परित्याग नहीं करे। मूलार्थ-संयमशील साधु या साध्वी स्थण्डिल के सम्बन्ध में यह जाने कि जिस स्थान पर गृहस्थ और गृहस्थ के पुत्रों ने कन्दमूल यावत् बीज आदि रखे हुए हैं, या रख रहे हैं या रखेंगे, तो साधु इस प्रकार के स्थानों में मल-मूत्रादि का त्याग न करे। इसी प्रकार गृहस्थ लोगों ने जिस स्थान पर शाली, ब्रीही, मूंग, उड़द, कुलत्थ, यव और ज्वार आदि बीजे हुए हैं, बीज रहे हैं और बीजेंगे, ऐसे स्थानों पर भी साधु मल-मूत्रादि का त्याग न करे। . जिन स्थानों पर कचरे के ढेर हों, भूमि फटी हुई हो, भूमि पर रेखाएं पड़ी हुई हों, कीचड़ हो, इक्षु के दण्ड हों, खड्डे हों, गुफाएं हों, कोट की भित्ति आदि हो, सम-विषम स्थान हो तो ऐसे स्थानों पर भी साधु मलमूत्र का त्याग न करे। इसी प्रकार जहां पर चूल्हे हों तथा भैंस, बैल, घोड़ा, कुक्कुड़, बन्दर, हाथी, लावक (पक्षी), चटक, तितर, कपोत और कपिंजल (पक्षी विशेष) आदि के रहने के स्थान हों या इनके लिए जहां पर कोई क्रियाएं या कुछ कार्य किए जाते हों ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र का
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy