________________
३७०
श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अब अवग्रह के भेदों का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे उग्गहे पन्नते, तंजहा-देविंदउग्गहे १ रायउग्गहे २ गाहावइउग्गहे ३ सागारियउग्गहे ४ साहम्मियउग्गहे ५ एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए. वा सामग्गियं॥१६२॥ उग्गहपडिमा सम्मत्ता॥
छाया- श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातं इह खलु स्थविरैः भगवद्भिः पंचविधः अवग्रहः प्रज्ञप्तः तद्यथा-देवेन्द्रावग्रहः १ राजावग्रहः २ गृहपति-अवग्रहः ३ सागारिकावग्रहः ४ साधर्मिकावग्रहः ५ एवं खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुक्याः वा सामग्र्यम्॥ अवग्रहप्रतिमा समाप्ता।
पदार्थ- आउसं-हे आयुष्मन्-प्रिय शिष्य! मे-मैंने। सुयं-सुना है। तेणं भगवया-उस भगवान ने। खलु-निश्चय ही। इह-इस जिन प्रवचन में। थेरेहिं भगवंतेहिं-स्थविर भगवन्तों अर्थात् पूज्य स्थविरों ने-गणधरों ने। पंचविहे-पांच प्रकार का। उग्गहे-अवग्रह। पन्नत्ते-प्रतिपादन किया है। तंजहा-जैसे कि।देविंदउग्गहेदेवेन्द्र का अवग्रह।१-रायउग्गहे २-राजा का अवग्रह २।गाहावइउग्गहे ३-गृहपति का अवग्रह।सागारियउग्गहे ४-सागारिक का अवग्रह ४। साहम्मियउग्गहे ५-साधर्मिक का अवग्रह ५। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। तस्स-उस। भिक्खुस्स-भिक्षु का साधु का। वा-अथवा। भिक्खुणीए-भिक्षुकी साध्वी का-आर्या का यह। सामग्गियं-समग्र आचार है। उग्गहपडिमा सम्मत्ता-यह अवग्रह प्रतिमा समाप्त हुई।
मूलार्थ हे आयुष्मन्-शिष्य ! मैने भगवान से इस प्रकार सुना है कि इस जिन प्रवचन में पूज्य स्थविरों ने पांच प्रकार का अवग्रह प्रतिपादन किया है १-देवेन्द्र अवग्रह, २-राज अवग्रह, ३-गृहपति अवग्रह, ४-सागारिक अवग्रह और ५-साधर्मिक अवग्रह । इस प्रकार यह साधु और साध्वी का समग्र-संपूर्ण आचार वर्णन किया गया है।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार के अवग्रह का वर्णन किया गया है- १-देवेन्द्र अवग्रह, २-राज अवग्रह, ३-गृहपति अवग्रह, ४-सागारिक अवग्रह और ५-साधर्मिक अवग्रह। दक्षिण भरत क्षेत्र में विचरने वाले मुनियों को प्रथम देवलोक के सुधर्मेन्द्र की आज्ञा ग्रहण करना देवेन्द्र अवग्रह कहलाता है। इससे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि तिर्यक् लोक पर भी देवों का आधिपत्य है। आगम में बताया गया है कि साधु जंगल में या अन्य स्थान में जहां कोई व्यक्ति न हो, देवेन्द्र की आज्ञा लेकर तृण,
१ उग्गहेत्ति-अवगृह्यते स्वामिना स्वीक्रियते यः सोऽवग्रहः । देविंदोग्गहेत्ति देवेन्द्रः-शक्र ईशानो वा तस्यावग्रहोदक्षिणं लोकार्धमुत्तरंवेति देवेन्द्रावग्रहः। राओग्गहेति-राजा-चक्रवर्ती तस्यावग्रहः षड्खण्डभरतादि क्षेत्रं राजावग्रहः। गाहावइउग्गहेति-गृहपतिः-सागारियउग्गहेत्ति-सहागारेण गेहेन वर्तते इति सागारः स एव सागारिकस्तस्यावग्रहो गृहमेवेति सागारिका वग्रहः। साहम्मियउग्गहेति समानेनधर्मेण चरन्तीति साधर्मिका साध्वपेक्षया साधव एव तेषामवग्रहः तदाभाव्यं पञ्चक्रोशपरिमाणं क्षेत्रमृतुबद्धे मासमेकं वर्षासु चतुरो मासान् यावदिति साधम्मिकावग्रहः।
- भगवती सूत्र, श०१६, उ० २ वृत्ति (आचार्य अभयदेव सूरि।) भगवती सूत्र।