________________
सप्तम अध्ययन, उद्देशक २
३७१
काष्ठ आदि ग्रहण कर सकता है। आज भी साधु बाहर शौच के लिए बैठते समय या विहार के समय में रास्ते में किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करना हो तो देवेन्द्र ( शक्रेन्द्र) की आज्ञा लेकर बैठते हैं। इस तरह साधु कोई भी वस्तु बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करते ।
भरत क्षेत्र के ६ खण्डों पर चक्रवर्ती का शासन होता है। अतः उसकी आज्ञा से उन देशों में विचरना यह राज अवग्रह कहलाता है और उस युग में देश अनेक भागों में विभक्त था, जैसे आज भारत
प्रान्तों में बंटा हुआ है, परन्तु, इस समय सब प्रान्त केन्द्र से सम्बद्ध होने से वह अखण्ड कहलाता है। परन्तु, उस समय उन विभागों के स्वतन्त्र शासक थे, अतः उन विभिन्न देशों में विचरते समय उनकी आज्ञा लेना गृहपति अवग्रह कहलाता है।
जिस व्यक्ति के मकान में ठहरना हो उसकी आज्ञा ग्रहण करना सागारिक अवग्रह कहलाता है। आगार का अर्थ है - घर, अतः अपने घरं या मकान पर आधिपत्य रखने वाले को सागारिय कहते हैं । और इसे शय्यातर अवग्रह भी कहते हैं। क्योंकि, साधु जिससे मकान की आज्ञा ग्रहण करता है, उसे आगमिक भाषा में शय्यातर कहते हैं ।
जिस मकान में पहले से साधु ठहरे हों तो साधु उनकी आज्ञा से ठहर जाता है, यह साधर्मिक अवग्रह है। अपने साम्भोगिक साधुओं की किसी वस्तु को ग्रहण करना हो तो भी साधु को उनकी आज्ञा लेकर ही ग्रहण करना चाहिए। इस तरह साधु को बिना आज्ञा के सामान्य एवं विशेष कोई भी पदार्थ ग्रहण करना नहीं कल्पता है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'थेरेहिं भंगवंतेहिं' पद में भगवान को ज्ञान स्वरूप मानकर उनके लिए स्थविर शब्द का प्रयोग किया गया है, जो सर्वथा उपयुक्त है । और 'सामग्गियं' शब्द से साधु के समग्र आचार की ओर निर्देश किया गया है।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें ।
॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥ (प्रथम चूला समाप्त