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________________ सप्तम अध्ययन, उद्देशक २ ३६९ पहली प्रतिमा में बताया गया है कि साधु सूत्र में वर्णित विधि के अनुसार मकान की याचना करे और वह गृहस्थ जितने काल तक जितने क्षेत्र में ठहरने की आज्ञा दे तब तक उतने ही क्षेत्र में ठहरे। दूसरी प्रतिमा यह है कि मैं अन्य साधुओं के लिए मकान याचना करूंगा तथा उनके द्वारा याचना किए गए मकान में ठहरूंगा। तीसरी प्रतिमा में वह यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं अन्य साधु के लिए मकान की याचना करूंगा, परन्तु दूसरे द्वारा याचना किए गए मकान में नहीं ठहरूंगा। चौथी प्रतिमा में वह दूसरे द्वारा याचना किए गए मकान में ठहर तो जाता है, परन्तु, अन्य के लिए याचना नहीं करता है। पांचवीं प्रतिमा में वह केवल अपने लिए ही मकान की याचना करता है, अन्य के लिए नहीं। छठी प्रतिमा में वह यह प्रतिज्ञा करता है कि जिस मकान में ठहरूंगा उसमें घास आदि रखा होगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा उकडू आदि आसन करके रात व्यतीत करूंगा और सातवीं प्रतिमा में वह उन्हीं तख्त, शिलापट एवं घास आदि को काम में लेता है, जो पहले से मकान में बिछे हुए हों। . ___ इसमें प्रथम प्रतिमा सामान्य साधुओं के लिए है। दूसरी प्रतिमा का अधिकारी मुनि गच्छ में रहने वाले साम्भोगिक एवं उत्कट संयम निष्ठ असाम्भोगिक साधुओं के साथ प्रेम भाव रखने वाला होता है। तीसरी प्रतिमा उन साधुओं के लिए है जो आचार्य आदि के पास रहकर अध्ययन करना चाहते हैं। चौथी प्रतिमा उनके लिए है, जो गच्छ में रहते हुए जिनकल्पी बनने का अभ्यास कर रहे हैं। पांचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमा केवल जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध है । ये भेद वृत्तिकार ने किए हैं । मूलपाठ में किसी कल्प के मुनि का संकेत नहीं किया गया है। वहां तो इतना ही उल्लेख किया गया है कि मुनि इन सात प्रतिमाओं को ग्रहण करते हैं, चाहे वे जिन कल्प पर्याय में हों या स्थविर कल्प पर्याय में हों। सामान्य रूप से प्रत्येक साधु अपनी शक्ति के अनुसार अभिग्रह ग्रहण कर सकता है। इसी कारण सूत्रकार ने यह उल्लेख किया है कि स्थान सम्बन्धी समस्त दोषों का त्याग करके साधु को अवग्रह की याचना करनी चाहिए। .. पिण्डैषणा आदि अध्ययनों की तरह इसमें भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अभिग्रह ग्रहण करने वाले मुनि को अन्य साधुओं को घृणा एवं तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। परन्तु सब का सामान्य रूप से आदर करते हुए यह कहना चाहिए कि भगवान की आज्ञा के अनुरूप आचरण करने वाले सभी साधु मोक्ष मार्ग के पथिक हैं। १ यहां पाठकों के अवलोकनार्थ वृत्ति का वह समग्र पाठ दिया जाता है- अथ भिक्षुः सप्तभिः प्रतिमाभिरभिग्रहविशेषैरवग्रहं गृह्णीयात्, तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा, तद्यथा-स भिक्षुरागन्तागारादौ पूर्वमेव विचिन्त्यैवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो, नान्यथाभूत इति प्रथमा।तथान्यस्य च भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, तद्यथा- अहं न खल्वन्येषां साधूनां कृतेऽवग्रहं 'ग्रहीष्यामि' याचिष्ये, अन्येषां वावग्रहे गृहीते सति 'उपालयिष्ये' वत्स्यामीति द्वितीया। प्रथमा प्रतिमा सामान्येन, इयं तु गच्छान्तर्गतानां साधूनां साम्भोगिकानामसांभोगिकानां चोद्युक्तविहारिणां, यतस्तेऽन्योऽन्यार्थं याचन्त इति। तृतीया त्वियंअन्यार्थमवग्रहं याचिष्ये, अन्यावगृहीते तु न स्थास्यामीति, एषा त्वाहालन्दिकानां, यतस्ते सूत्रार्थविशेषमाचार्यादभिकांक्षन्त आचार्यार्थ याचन्ते। चतुर्थी पुनरहमन्येषां कृतेऽवग्रहं न याचिष्ये अन्यावगृहीते च वत्स्यामीति, इयं तु गच्छे एवाभ्युद्यतविहारीणां जिनकल्पाद्यर्थ परिकर्म कुर्वताम्। अथापरापञ्चमी-अहमात्मकृतेऽवग्रहमवग्रहीष्यामि न चापरेषां द्वित्रिचतुष्यपञ्चानामिति, इयं तु जिनकल्पिकस्य। अथापरा षष्ठी-यदीयमवग्रहं ग्रहीष्यामि, इतरथोत्कुटुको वा निषण्णः उपविष्टो वा रजनीं गमिष्यामीत्ये जिनकल्पिकादेरिति।अथापरासप्तमी-एषैव पूर्वोक्ता, नवरं यथासंस्तृतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि नेतरदिति शेषमात्मोत्कर्षवर्जनादि पिण्डैषणावन्नेयमिति॥ - आचारांग वृत्ति।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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