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________________ ३५८ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अन्नयरे वा-अन्य इसी प्रकार का ऊंचा अथवा विषम स्थान।तह -तथाप्रकार के। जाव-यावत्। उग्गह-अवग्रह को। नो उगिहिज वा २-ग्रहण न करे अर्थात् इस प्रकार के अवग्रह की गृहस्थ से याचना न करे। से भि०-वह साधु या साध्वी। से जं. पुण-वह जो फिर अवग्रह को जाने। ससागारियं-जो उपाश्रय गृहस्थों से युक्त, अग्नि और जल से युक्त तथा स्त्री-पुरुष और नपुंसक आदि से युक्त हो तथा।सखुड्डपसुभत्तपाणंबालक-पशु और उनके खाने-पीने के योग्य अन्नपानादि से युक्त हो। पन्नस्स-प्रज्ञावान् साधुको।निक्खमणपंवेसेनिकलना और प्रवेश करना। नो-नहीं कल्पता।जाव-यावत्।धम्माणुओगचिंताए-ऐसे स्थान में धर्मानुष्ठान एवं धर्मानुयोग चिन्ता आदि करनी नहीं कल्पती। सेवं-वह-भिक्षु इस प्रकार। नच्चा-जानकर। तह-तथा प्रकार के। उवस्सए-उपाश्रय में। ससागारियं-जो कि गृहस्थ आदि से युक्त है। उवग्गह-अवग्रह को।नो उगिहिज वा २-ग्रहण न करे और न उसकी याचना करे। से भि०-वह साधु अथवा साध्वी।से जं-वह जो फिर अवग्रह को जाने।गाहावइ-गृहपति कुल के। मझमझेणं-मध्य २ से। गंतुं-जाने का। पंथे-मार्ग हो। वा-अथवा। पडिबद्धं-मार्ग स्त्रियों से आकीर्ण हो या स्त्री वर्ग अपनी नाना प्रकार की शारीरिक चेष्टायें कर रहा हो तो। पन्नस्स-प्रज्ञावान् साधु को उन्हें उलंघ कर जाना। नो-नहीं कल्पता अतः। सेवं नच्चा-साधु इस प्रकार जानकर। तहप्पगारे-तथाप्रकार के उपाश्रय के विषय में अवग्रह की याचना न करे। से भि०-वह साधु अथवा साध्वी।से जं. पुण-वह जो फिर अक्ग्रह को जाने। इह खलु-निश्चय ही यहां।गाहावई वा-गृहपति।जाव-यावत्।कम्मकरीओ वा-गृहपति की दासियें।अन्नमन्नं-परस्पर।अक्कोसंति वा-आक्रोश करती हैं, आपस में लड़ती-झगड़ती हैं। तहेव-उसी प्रकार। तिल्लादि-तेल आदि चोपड़ सकती हैं तथा। सिणाणादि-स्नानादि करती हैं। सीओदगवियडादि-शीतल सचित्त जल से वा उष्ण जल से स्नान करती हैं। वा-अथवा। निगिणाइ-मैथुन आदि क्रीड़ा के लिए नग्न होती हैं। वा-अथवा। जहा-जैसे। सिज्जाए-शय्या अध्ययन के आलावगा-आलापक -कथन किए गए हैं उसी प्रकार यहां भी जान लेना। नवरं-इतना विशेष है। उग्गहवत्तव्वया-यहां पर अवग्रह की वक्तव्यता है, अर्थात् अवग्रह का विषय है। से भि०-वह साधु अथवा साध्वी। से जं-वह जो फिर अवग्रह को जाने। आइन्नसंलिखे-जो उपाश्रय चित्रों से आकीर्ण है ऐसे उपाश्रय में ठहरने के लिए। पन्नस्स-प्रज्ञावान् साधु को तथाप्रकार के उपाश्रय का। उग्गिण्हिज्जा वा २-अवग्रह नहीं लेना चाहिए। एयं खलु-निश्चय ही यह साधु और साध्वी का समग्र आचार है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-संयम निष्ठ साधु-साध्वी को सचित्त पृथ्वी या जीव-जन्तु युक्त स्थान की आज्ञा नहीं लेनी चाहिए और जो उपाश्रय भूमि से ऊंचा, स्तम्भ आदि के ऊपर एवं विषम हो उसमें भी ठहरने की आज्ञा न लेनी चाहिए और जो उपाश्रय कच्ची भीत पर स्थित हो और अस्थिर हो उसकी भी साधु याचना न करे। जो उपाश्रय स्तम्भ आदि पर अवस्थित और इसी प्रकार के अन्य किसी विषम स्थान में हो तो उसकी आज्ञा भी नहीं लेनी चाहिए। जो उपाश्रय गृहस्थों से युक्त हो, अग्नि और जल से युक्त हो, एवं स्त्री, बालक और पशुओं से युक्त हो तथा उनके योग्य खान-पान की सामग्री से भरा हुआ हो तो बुद्धिमान साधु को ऐसे उपाश्रय में भी नहीं ठहरना चाहिए। जिस उपाश्रय में जाने के मार्ग में स्त्रियां बैठी रहती हों या वे नाना प्रकार की शारीरिक चेष्टायें करती हों,
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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