SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५७ सप्तम अध्ययन, उद्देशक १ धम्माणुओगचिंताए, सेवं नच्चा तह उवस्सए ससागारिए० नो उग्गहं उगिण्हिज्जा वा २॥ से भि० से जं. गाहावइकुलस्स मज्झमझेणं गंतुं पंथे पडिबद्धं वा नो पन्नस्स जाव सेवं न०॥से भि० से जं. इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अन्नमन्नं अक्कोसंति वा तहेव तिल्लादि सिणाणादि सीओदगवियडादि निगिणयाइ वा जहा सिजाए आलावगा, नवरं उग्गहवत्तव्वया॥से भि से जं. आइन्नसंलिक्खे नो पन्नस्स. उगिण्हिज वा २, एयं खलुः ॥१५८॥ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यत् अवग्रहं जानीयात् अनन्तरहितायां पृथिव्यां यावत् सन्तानकः तथाप्रकारं अवग्रहं न गृह्णीयात् वा २। स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यत् पुनः अवग्रहं स्थूणायां वा ४ तथाप्रकारं अन्तरिक्षजातं दुर्बद्धं यावत् नो अवगृह्णीयात् वा २। सभिक्षुर्वा० स यत् कुल्यके यावत् नो अवगृह्णीयाद्वा २॥स भिक्षुर्वा स्कन्धे वा ४ अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारं यावत् नो अवग्रहं अवगृह्णीयाद्वा २॥स भिक्षुर्वा स यत् पुन: ससागारिकं सक्षुद्रपशुभक्तपानं नो प्राज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशः यावत् धर्मानुयोगचिन्तायां तदेवं ज्ञात्वा तथाप्रकारमुपाश्रयं ससागारिकं नो अवग्रहं अवगृह्णीयाद् वा २॥ स भिक्षुः स यत्। गृहपतिकुलस्य मध्य-मध्येन गन्तुं पथि प्रतिबद्धं वा नो प्राज्ञस्य यावत् तदेवं ज्ञात्वा०॥ स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यत् इह खलु गृहपतिर्वा यावत् कर्मकर्यो वा अन्योन्यम् आक्रोशन्ति वा तथैव तैलादि, स्नानादि, शीतोदकविकटादि नग्नादि वा यथा शय्यायाम् आलापकाः नवरम् अवग्रहवक्तव्यता॥स भिक्षुर्वा स यत् आकीर्णसंलिख्ये नो प्राज्ञस्य अवगृह्णीयाद् वा २ एतत् खलु। पदार्थ-से भि०-वह साधु अथवा साध्वी।से-वह। जं.-जो। पुण-फिर अवग्रह को। जाणिजाजाने।अणंतरहियाए-सचित्त। पुढवीए-पृथ्वी के विषय में। जाव-यावत्। संताणए-मकड़ी के जाले आदि से युक्त पृथ्वी में। तह-तथाप्रकार के। उग्गह-अवग्रह को। नो गिण्हिज वा-ग्रहण न करे या गृहस्थ से आज्ञा न मांगे। से भि-वह साधु अथवा साध्वी।से-वह।जं-जो।पुण-फिर। उग्गह- अवग्रह को।जाणिजाजाने। थूणंसि वा ४-स्तूप आदि के विषय में। तह-तथाप्रकार के।अंतलिक्खजाए-अन्तरिक्ष-भूमि से ऊंचे स्थानों को जो। दुब्बद्धे-अस्थिर हैं। जाव-यावत् ऐसे अवग्रह को। नो उगिण्हिज्ज वा २-ग्रहण न करे अथवा गृहस्थ से उसकी याचना न करे। से भि०-वह साधु अथवा साध्वी। से-वह। जं-जो फिर अवग्रह को जाने। कुलियंसि वा ४-भीत आदि के विषय में जो कि चलाचल स्वभाव वाले स्थान हैं। जाव-यावत्। नो उगिहिज्ज वा २-अवग्रह को ग्रहण न करे और गृहस्थ से याचना भी न करे। से भि०-वह साधु अथवा साध्वी फिर अवग्रह को जाने। खंधंसि वा-स्कन्ध आदि के विषय में।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy