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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध उनका आमन्त्रण करे, परन्तु अन्य के लाए हुए पाट आदि का उसे निमन्त्रण न करे। इससे स्पष्ट होता है कि अपने यहां आए हुए साधर्मिक एवं चारित्रनिष्ठ साधक का-जिसके साथ आहार-पानी का संभोग नहीं है और जिसकी समाचारी भी अपने समान नहीं है, शय्या-संस्तारक आदि से सम्मान करना चाहिए। आगम में बताया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवान महावीर के साधुओं की समाचारी भिन्न थी, उनका परस्पर साम्भोगिक सम्बन्ध भी नहीं था। फिर भी जब गौतम स्वामी केशी श्रमण के स्थान पर पहुंचे तो दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ होते हुए भी केशी श्रमण ने गौतम स्वामी का स्वागत किया और उन्हें निर्दोष एवं प्रासुक पलाल (घास) आदि का आसन लेने की प्रार्थना की। इससे पारस्परिक धर्म स्नेह में अभिवृद्धि होती है और पारस्परिक मेल-मिलाप एवं विचारों के आदान-प्रदान से जीवन का भी विकास होता है। अतः चारित्र निष्ठ असम्भोगी साधु का शय्या आदि से सम्मान करना प्रत्येक साधु का कर्तव्य है।
प्रस्तुत सूत्र के उत्तरार्ध में बताया गया है कि यदि साधु अपने प्रयोजन (कार्य) के लिए किसी गृहस्थ से सूई, कैंची, कान साफ करने का शस्त्र आदि लाया हो तो वह उसे अपने काम में ले, किन्तुं अन्य साधु को न दे। और अपना कार्य पूरा होने पर उन वस्तुओं को गृहस्थ के घर जाकर हाथ लम्बा करके भूमि पर रख दे और उसे कहे कि यह अपने पदार्थ सम्भाल लो। परन्तु, वह उन पदार्थों को उसके हाथ में न दे।
कोष में 'पिप्पलए'२ शब्द का अर्थ कांटे निकालने का चिपिया, उस्तरा और पिप्पल के पत्तों का बिछौना तथा कैंची किया है। और 'उत्ताणए हत्थे' का ऊंचा किया हुआ हाथ अर्थ किया है। इसके अतिरिक्त 'उत्ताणक' शब्द के-१. सीधा, २. गहरा न हो, ३. निष्पलक देखना ४. चित्त शयन करने का अभिग्रह करने वाला और ५ उथले पानी वाला समुद्र आदि अर्थ किए हैं। , __ इस विषय का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भि० से जं• उग्गहं जाणिज्जा अणंतरहियाए पुढवीए जाव संताणए तह उग्गहं नो गिण्हिज्जा वा २॥से भि० से जं पुण उग्गहं थूणंसि वा ४ तह अंतलिक्खजाए दुब्बद्धे जाव नो उगिण्हिज्जा वा २॥
से भि० से जं. कुलियंसि वा ४ जाव नो उगिहिज्ज वा २॥ से भि. खधंसि वा ४ अन्नयरे वा तह जाव नो उग्गहं उगिहिज्ज वा २॥से भि० से जं. पुण• ससागारियं सखुड्डपसुभत्तपाणं नो पन्नस्स निक्खमणपवेसे जाव
पलालं फासुयं तत्थ, पञ्चमं कुसतणाणि य। गोयमस्स निसेज्जाए, खिप्पं संपणामए।
- उत्तराध्ययन सूत्र, २३, १७। २ पिप्पलअ-कांटा निकालने का चिपिया तथा उस्तरा (२)पिप्पल-पिप्पल के पत्तों का बिछौना तथा कतरनी कैंची। - अर्द्धमागधी कोष भाग ३।
३ १-सीधा सच्चा, २-जो गहरा-ऊंडा न हो वह, ३-पलक मारे बिना आंख को खुली रखना, ४-चित्त सोने का अभिग्रह-प्रतिज्ञा वाला, उथले पानी वाला समुद्र इत्यादि अर्थ किए हैं।
- अर्द्धमागधी कोष भाग २ पृष्ठ २१४।