SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५२ __ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी वस्तु को उनकी आज्ञा के बिना ग्रहण नहीं करता। यदि किसी साधु के छत्र, चर्म छेदनी आदि पदार्थ पड़े हुए हैं और अन्य साधु को उनकी आवश्यकता है, तो वह उस साधु की आज्ञा के बिना उन्हें ग्रहण नहीं करेगा। प्रस्तुत प्रसंग में छत्र का अर्थ है- वर्षा के समय सिर पर लिया जाने वाला ऊन का कम्बल। और स्थविर कल्पी मुनि विशेष कारण उपस्थित होने पर छत्र भी रख सकते हैं। वृत्तिकार ने भी अपवाद मार्ग में छत्र-छाता रखने की बात कही है। अतः छत्र शब्द से कम्बल और छत्र दोनों में से कोई भी पदार्थ हो सकता है। इसी तरह साधु किसी कार्य के लिए गृहस्थ के घर से चर्म छेदनी या असि पत्र (चाकू) आदि लाया हो और दूसरे साधु को इन वस्तुओं की या उसके पास में स्थित वस्तुओं में से किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता हो तो वह उक्त मुनि की आज्ञा लेकर उस वस्तु को ग्रहण कर सकता है। इस तरह साधु स्तेय कर्म से पूर्णतः निवृत्त होकर साधना पथ में गति-प्रगति करता हुआ अपने लक्ष्य पर पहुंचने का प्रयत्न करता है। इस विषय को आगे बढ़ाते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से भि० आगंतारेसुवा ४ अणुवीइ उग्गहं जाइज्जा,जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठए ते उग्गहं अणुन्नविजा कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिन्नायं वसामो जाव आउसो ! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिया एइ ताव उग्गहं उग्गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो॥से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहयंसि जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुन्ना उवागच्छिज्जा जे तेण सयमेसित्तए असणं वा ४ तेण ते साहम्मिया ३ उवनिमंतिजा, नो चेव णं परवडियाए ओगिज्झिय २ उवनि०॥१५६॥ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा आगन्तारेषु वा ४ अनुविचिन्त्य अवग्रहं याचेत, यस्तत्र ईश्वरः यस्तत्र समधिष्ठाता तान् अवग्रहं अनुज्ञापयेत्, कामं खलु आयुष्मन् गृहपते ! यथालन्दं यथापरिज्ञातं वसामः यावद् आयुष्मन् ! यावत् आयुष्मतः अवग्रहे यावत् साधर्मिकाः एष्यन्ति[समागमिष्यन्ति ] तावदवग्रहमवग्रहीष्यामः तेन परं विहरिष्यामः॥स किं पुनः तत्रावग्रहे एवावग्रहीते ये तत्र साधर्मिकाः साम्भोगिकाः समनोज्ञाः उपागच्छेयुः ये तेन स्वयं एषितुमशनं वा ४ तेन तान् साधर्मिकान् ३ उपनिमन्त्रयेत्, नो चैव पराप्रत्ययेन अवगृह्य २ उपनिमन्त्रयेत्। पदार्थ-से भिक्खू-वह साधु अथवा साध्वी।आगंतारेसुवा-धर्मशाला आदि में जाकर।अणुवीइ१ 'छत्रकमिति-छद अपवारणे' छादयतीति छत्रं-वर्षाकल्पादि यदि वा कारणिकः क्वचित् कुंकणदेशादावतिवृष्टि सम्भवात् छत्रकमपि गृह्णीयाद्। - आचाराङ्ग वृत्ति। २ नाखून काटने या अन्य कार्यों के लिए साधु चर्म छेदनी आदिशस्त्र गृहस्थ के यहां से लाते हैं, परन्तु सूर्यास्त पूर्व ही वापिस लौटा देते हैं। क्योंकि धातु के पदार्थ रात को साधु अपनी निश्राय में नहीं रखते। अतः दिन में जब तक ये पदार्थ जिस साधु के पास हों उसकी आज्ञा के बिना अन्य साधु नहीं ले सकता। - लेखक
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy