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________________ सप्तम अध्ययन, उद्देशक १ ३५३ विचार कर। उग्गह-अवग्रह की। जाइज्जा-याचना करे। तत्थ-उस धर्मशाला का। जे-जो। ईसरे-स्वामी है। तत्थ-उसका। जे-जो। समहिट्ठए-अधिष्ठाता है। ते-उनकी। उग्गह-आज्ञा। अणुन्नविज्जा-मांगे। खलुवाक्यालंकार में है। आउसो-आयुष्मन् गृहस्थ ! काम-यदि आपकी इच्छा हो। अहालंदं-जितने समय के लिए आप आज्ञा दें तथा।अहापरिन्नायं-जितने क्षेत्र की आज्ञा दें, उतने समय तक उतने ही क्षेत्र में।वसामो-हम निवास करेंगे। जाव-यावत्। आउसो-आयुष्मन् गृहस्थ ! जाव-यावन्मात्र काल प्रमाण। आउसंतस्स-आयुष्मन् काआपका। उग्गहे-अवग्रह होगा तथा। जाव-यावन्मात्र। साहम्मिया-साधर्मिक-साधु।एइ-आएंगे। ताव-ता काल तक। उग्गह-अवग्रह को। उग्गिहिस्सामो-ग्रहण करके रहेंगे। तेण परं-उसके पश्चात्। विहरिस्सामोविहार कर जायेंगे। से-वह- साधु। किं पुण-फिर क्या करे।तत्थ-वहां। उग्गहंसि-अवग्रह में। एवोग्गहियंसिप्रकर्ष पूर्वक आज्ञा दिए जाने पर। जे-जो।तत्थ-वहां। साहम्मिया-साधर्मिक-साधु।संभोइया-सांभोगिक-सम समाचारी के मानने बाले, तथा एक गुरु के शिष्य। समणुन्ना-उग्र विहार करने वाले अर्थात् क्रिया करने वाले। उवागच्छिज्जा-अतिथि रूप में आएं। जे-जो। तेण-उस-परमार्थी साधु से। सयं-स्वयमेव। एसित्तए-गवेषणा करके। असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार लाया गया है। तेण-उसे। ते-उन। साहम्मिए-साधर्मिक साधुओं को। उवनिमंतिजा-निमन्त्रित करे। णं-वाक्यालंकार में है। एव-अवधारण अर्थ में है। च-परन्तु। परवडियाए-दूसरे के लाए हुए आहार की। ओगिज्झिय २-अपेक्षा से। नो उवनिमंतिज्ज-निमन्त्रित न करे। मूलार्थ-संयमशील साधु या साध्वी धर्मशाला आदि में जाकर और विचार कर उस स्थान की आज्ञा मांगे। उस स्थान का जो स्वामी या अधिष्ठाता हो उससे आज्ञा मांगते हुए कहेआयुष्मन् गृहस्थ ! जिस प्रकार तुम्हारी इच्छा हो अर्थात् जितने समय के लिए जितने क्षेत्र में निवास करने की तुम आज्ञा दोगे उतने काल तक उतने ही क्षेत्र में हम निवास करेंगे, अन्य जितने भी साधर्मिक साधु आएंगे वे भी उतने काल तक उतने क्षेत्र में ठहरेंगे। उक्तकाल के बाद वे विहार कर जाएंगे। इस प्रकार गृहस्थ की आज्ञा के अनुसार वहां निवसित साधु के पास यदि अन्य साधु-जो कि साधर्मी हैं, समग्र समाचारी वाले हैं और उग्र विहार करने वाले हैं, अतिथि के रूप में आ जाएं तो वह साधु अपने द्वारा लाए हुए आहारादि का उन्हें आमंत्रित करे, परन्तु अन्य के लाए हुए आहारादि के लिए उन्हें निमंत्रित न करे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में मकान ग्रहण करने सम्बन्धी अवग्रह का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु अपने ठहरने योग्य निर्दोष एवं प्रासुक स्थान को देखकर उसके स्वामी या अधिष्ठाता से उस मकान में ठहरने की आज्ञा मांगे। आज्ञा मांगते समय साधु यह स्पष्ट कर दे कि आप जितने समय के लिए जितने क्षेत्र में ठहरने एवं उसका उपयोग करने की आज्ञा देंगे उतने समय तक हम उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे। और यदि हमारे अन्य सांभोगिक साधु आएंगे तो वे भी उस अवधि तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे जितने क्षेत्र को काम में लेने की आपने आज्ञा दी है। इससे स्पष्ट है कि कोई भी साधु बिना आज्ञा लिए किसी भी मकान में नहीं ठहरता है। १ स्वामी का अर्थ मकान मालिक से है और अधिष्ठाता का अर्थ है- मकान की देख-रेख के लिए रखा हुआ व्यक्ति अर्थात् अपनी अनुपस्थिति में जिसे वह मकान देख-रेख रखने के लिए दे रखा है।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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