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________________ ३५१ सप्तम अध्ययन, उद्देशक १ घर से रहित। अकिंचणे-अकिंचन-परिग्रह से रहित। अपुत्ते-पुत्र आदि से रहित। अपसू-और द्विपद चतुष्पदादि पशुओं से रहित एवं। परदत्तभोई-दूसरे का दिया हुआ भोजन करने वाला, मैं। पावं कम्मं-पाप कर्म को। नो करिस्सामि-नहीं करूंगा।त्ति-इस प्रकार की। समुट्ठाए-प्रतिज्ञा में उद्यत होकर मैं ऐसी प्रतिज्ञा करता हूं।भंतेहे भगवन् ! मैं। सव्वं-सर्व प्रकार के। अदिन्नादाणं-अदत्तादान का। पच्चक्खामि-प्रत्याख्यान करता हूं, इस प्रतिज्ञा से।से-वह-भिक्षु।गामं वा-ग्राम और नगर। जाव-यावत्। रायहाणिं वा-राजधानी में।अणुपविसित्ताप्रवेश करके। नेव सयं अदिन्नं गिण्हिज्जा-बिना दिए अदत्त-पदार्थ को स्वयं ग्रहण न करे तथा। नेवन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविजा-बिना दिए पदार्थ को दूसरों से ग्रहण भी न कराए और। अदिन्नं गिण्हंतेवि-अदत्त को ग्रहण करने वाले। अन्ने-अन्य व्यक्तियों का।नो समणुजाणिज्जा-अनुमोदन भी न करे, इतना ही नहीं किन्तु। जेहिवि सद्धिं-जिनके साथ। संपव्वइए-प्रवर्जित हुआ या जिनके साथ रहता है। तेसिंपि-उनके भी। जाई-जो। छत्तगंवा-छत्र। जावे-यावत्। चम्मछेयणगंवा-चर्म छेदक आदि उपकरण विशेष हैं। तेसिं-उनका। पुव्वा०पहले। उग्गह-अवग्रह-आज्ञा विशेष। अणणुन्नविय-लिए बिना। अपडिलेहिय-बिना प्रतिलेखन किए और। अपमजिय-बिना प्रमार्जन किए। नो उग्गिण्हिज्जा वा-एक बार ग्रहण न करे तथा। परिगिण्हिज्जा-बार २ ग्रहण न करे, किन्तु। पुव्वामेव-पहले ही। तेसिं-उनके पास। उग्गह-अवग्रह की। जाइज्जा-याचना करे अर्थात् आज्ञा मांगे। अणुन्नविय-उनकी आज्ञा लेकर तथा। पडिलेहिय-प्रतिलेखना और। पमज्जिय-प्रमार्जना करके। तओ-तदनन्तर। सं०-यतनापूर्वक। उग्गिहिज्जा वा प०-एक बार अथवा अधिक बार ग्रहण करे। मूलार्थ-दीक्षित होते समय दीक्षार्थी विचार पूर्वक कहता है कि मैं श्रमण-तपस्वी-तप करने वाला बनूंगा, जो घर से, परिग्रह से, पुत्रादि सम्बन्धियों से और द्विपद-चतुष्पद आदि पशुओं से रहित होकर गोचरी (भिक्षा) लाकर संयम का पालन करने वाला साधक बनूंगा, परन्तु कभी भी पापकर्म का आचरण नहीं करूंगा। हे भदन्त ! इस प्रकार की प्रतिज्ञा में आरूढ़ होकर आज मैं सर्वप्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं। . ___ग्राम, नगर, यावत् राजधानी में प्रविष्ट संयमशील साधु स्वयं अदत्त- बिना दिए हुए पदार्थों को ग्रहण न करे,न दूसरों से ग्रहण कराए और जो अदत्त ग्रहण करता है उसकी अनुमोदना (प्रशंसा) भी न करे। एवं वह मुनि जिनके पास दीक्षित हुआ है, या जिनके पास रह रहा है उनके छत्र यावत् चर्म छेदक आदि उपकरण विशेष हैं, उनको बिना आज्ञा लिए तथा बिना प्रतिलेखना और प्रमार्जन किए ग्रहण न करे। किन्तु पहले उनसे आज्ञा लेकर और उसके बाद उनका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उन पदार्थों को स्वीकार करे।अर्थात् बिना आज्ञा से वह कोई भी वस्तु ग्रहण न करे। . .. हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में साधु के अस्तेय महाव्रत का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु किसी व्यक्ति की आज्ञा के बिना सामान्य एवं विशिष्ट कोई भी पदार्थ स्वीकार न करे। वह दीक्षित होते समय यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं घर, परिवार, धन-धान्य आदि का त्याग करके तप-साधना के तेजस्वी पथ पर आगे बढ़ेगा और साध्य-सिद्धि तक पहुंचने में सहायक होने वाले आवश्यक पदार्थों एवं उपकरणों को बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करूंगा। इस तरह साधक जीवन पर्यन्त के लिए चोरी का सर्वथा त्यांग करके साधना पथ पर कदम रखता है। यहां तक कि वह अपने सांभोगिक साधुओं की किसी
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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