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________________ ३४६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध आदि को।अवहटु-निकाल कर तथा।रयं-रज आदि को।पमजिय-प्रमार्जित कर के। तओ-तदनन्तर।सं०साधु। गाहावइ०-गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए। पविसेज वा-प्रवेश करे। निक्खमिज वा-निकले। मूलार्थ-गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिए जाने से पहले संयमनिष्ठ साधु-साध्वी अपने पात्र का प्रतिलेखन करे। यदि उसमें प्राणी आदि हों तो उन्हें बाहर निकाल कर एकान्त में छोड़ दे और रज आदि को प्रमार्जित कर दे। उसके बाद साधु आहार आदि के लिए उपाश्रय से बाहर निकले और गृहस्थ के घर में प्रवेश करे।क्योंकि भगवान का कहना है कि बिना प्रतिलेखना किए हुए पात्र को लेकर जाने से उसमें रहे हुए क्षुद्र जीव-जन्तु एवं बीज आदि की विराधना हो सकती है। अतः साधु को आहार-पानी के लिए जाने से पूर्व पात्र का सम्यक्तया प्रतिलेखन करके आहार को जाना चाहिए, यही भगवान की आज्ञा है। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी को आहार-पानी के लिए जाने से पहले अपने पात्र का सम्यक्तया प्रतिलेखन करना चाहिए। जब कि साधु सायंकाल में पात्र साफ करके बांधता है और प्रातः उनका प्रतिलेखन कर लेता है, फिर भी आहार-पानी को जाते समय पुनः प्रतिलेखन करना अत्यावश्यक है। क्योंकि कभी-कभी कोई क्षुद्र जन्तु या रज (धूल) आदि पात्र में प्रविष्ट हो जाती है। अतः जीवों की रक्षा के लिए उसका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करना जरूरी है। यदि पात्र को न देखा जाए और वे क्षुद्र जन्तु उसमें रह जाएं तो उनकी विराधना हो सकती है। इस लिए बिना प्रमार्जन किए पात्र लेकर आहार को जाना कर्म बन्ध का कारण बताया गया है। अतः साधु को सदा विवेक पूर्वक पात्र का प्रतिलेखन करके ही गोचरी को जाना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं- . मूलम्- से भि० जाव समाणे सिया से परो आह? अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगंपरिभाइत्ता नीहटु दलइज्जा, तहप्प० पडिग्गहगंपरहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं जाव नो प०, से य आहच्च पडिग्गाहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिज्जा, से पडिग्गहमायाए पाणं परिट्ठविज्जा, ससिणिद्धाए वा भूमीए नियमिज्जा।से. उदउल्लं वा ससिणिद्धं वा पडिग्गहं नो आमजिजा वा २ अह पु० विगओदए मे पडिग्गहए छिन्नसिणेहे तह पडिग्गहं तओ० सं० आमजिज्ज वा जाव पयाविज वा। से भि० गाहा. पविसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा. पिंड पविसिज वा नि०, एवं बहिया वियारभूमिं विहारभूमिं वा गामा० दूइजिज्जा, तिव्वदेसियाए जहा बिइयाए वत्थेसणाए नवरं इत्थ पडिग्गहे, एयं खलु तस्स० जं सव्वठेहिं सहिए सया जएज्जासि, त्तिबेमि॥१५४॥ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् स्यात् स परः आहृत्य अन्तः पतद्ग्रहे शीतोदकं परिभाज्य निःसार्य दद्यात्, तथाप्रकारं पतद्ग्रह परहस्ते वा परपात्रे वा अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् स च आहृत्य प्रतिगृहीतं स्यात् क्षिप्रमेव
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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