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षष्ठ अध्ययन-पात्रैषणा
द्वितीय उद्देशक
प्रथम उद्देशक में पात्र गवेषणा की विधि का उल्लेख किया गया है, अब प्रस्तुत उद्देशक में पात्र सम्बन्धी शेष विधि का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
... मूलम्-से भिक्खू वा २ गाहावइकुलं पिंड पविढे समाणे पुव्वामेव पेहाए पडिग्गहगं अवहट्ट पाणे पमज्जिय रयं तओ सं० गाहावइ पिंड निक्ख. प०, केवली आऊ ! अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वा बीए वा हरि परियावजिज्जा, अह भिक्खूणं पु० जं पुव्वामेव पेहाए पडिग्गहं अवह? पाणे पमजिय रयंतओ सं गाहावइ निक्खमिज्ज वा २॥१५४॥
छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं पिंडपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् पूर्वमेव प्रेक्ष्य पतद्ग्रहं अपहृत्य (आहृत्य) प्राणिनः प्रमृज्य रजः ततः संयतमेव गृहपतिकुलं पिंडपातप्रतिज्ञया निष्क्रामेद् वा प्रविशेद् वा केवली ब्रूयात् कर्मादानमेतत्। आयुष्मन् ! अन्तः पतद्ग्रहे प्राणिनो वा बीजानि वा हरितानि वा पर्यापोरन्। अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं यत् पूर्वमेवं प्रेक्ष्य पतद्ग्रहं अपहृत्य प्राणिनः प्रमृज्य रजः, ततः संयतमेव गृहपतिकुलं निष्कामेद् वा प्रविशेद् वा।
पदार्थ-से भिक्खू-वह साधु या साध्वी।गाहावइकुलं-गृहस्थ के कुल में। पिंडवायपडियाएआहार प्राप्ति के लिए।पविढे समाणे-प्रवेश करता हुआ।पुव्वामेव-पहले ही। पेहाए-देखकर। पडिग्गहगंपात्र को अर्थात् यदि पात्र में। पाणे-प्राणि हों तो उनको। अवहट्टु-निकाल कर तथा। पमज्जिय रयं-रज को प्रमार्जित कर। तओ-तदनन्तर। सं०-यतना पूर्वक। गाहावइ०-गृहपति के कुल में। पिंड० प०-आहार प्राप्ति के लिए। निक्खमिज वा प०-निकले या प्रवेश करे क्योंकि।केवली-केवली भगवान कहते हैं। आउ०-आयुष्मन् शिष्य ! प्रतिलेखना और प्रमार्जना किए बिना पात्र का ले जाना कर्म बन्धन का कारण है, क्योंकि।अंतोपडिग्गहगंसिपात्र के बीच में। पाणे वा-प्राणी। बीए वा-अथवा बीज।हरि०-अथवा हरी तथा सचित्त रज यदि हो तो उनका। परियावजिज्जा-विनाश हो जाएगा। अह-इस लिए। भिक्खूणं-भिक्षुओं को। पु:-तीर्थंकरादि ने पहले ही यह आज्ञा दी है। जं-जो कि। पुव्वामेव-पहले ही। पडिग्गह-पात्र को। पेहाए-देखकर उसमें रहे हुए। पाणे-प्राणी