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पञ्चम अध्ययन, उद्देशक २
३३१ अपि च एतत् ममैव स्यात्, मातृस्थानं संस्पृशेत् नो एवं कुर्यात्।
पदार्थ- एगइओ-कोई। से-भिक्षु । मुहुत्तगं २-मुहूर्त मात्र काल का उद्देश्य कर। पाडिहारियंप्रातिहारक-जो लेकर फिर पीछे उसी को दिया जाए, उसे प्रातिहारक कहते हैं। वत्थं-वस्त्र की। जाइजा-याचना करे। जाव-यावत् वस्त्र की याचना करके वह अकेला ही ग्रामादि में चला जाए और वहां पर। एगाहेण वा-एक दिन। दु-दो दिन। ति-तीन दिन। चउ०-चार दिन अथवा। पंचाहेण वा-पांच दिन। विप्पवसिय २-ठहर कर फिर। उवागच्छिज्जा-वहां पर ही आ जाए। तहप्पगारं-तथा प्रकार का। वत्थं-वस्त्र, यदि पहनने से फट गया हो, उपहत हो गया हो तो। अप्पणो-उस वस्त्र का स्वामी-जिसने वस्त्र दिया था वह, उपहत हुआ जानकर स्वयं । नो गिहिजा-ग्रहण न करे। नो अन्नमन्नस्स दिज्जा-न परस्पर में किसी को दे। नो पामिच्चं कुज्जा-न किसी को उधार तथा।वत्थेण-वस्त्र से। वत्थपरिणामं नो करिजा-वस्त्र का परिणमन अर्थात् अदला-बदला न करे तथा। नो परं उवसंकमित्ता-न किसी अन्य साधु के पास जाकर। एवं वइज्जा-इस प्रकार कहे-। आउ० समणा-हे आयुष्मन् श्रमण ! अभिकंखसि-क्या तुम चाहते हो। वत्थं-वस्त्र को। धारित्तए वा-धारण करना अथवा। परिहरित्तए वा-पहनना, इस प्रकार कह कर अन्य साधु को भी वस्त्र नहीं दे। थिरं वा-अथवा स्थिर-दृढ़।संतंवस्त्र के होने पर। पलिछिंदिय २-छेदन करके-टुकड़े करके। नो परिट्ठविज्जा-परठे नहीं अर्थात् फैंके नहीं। तहप्पगारं-तथा प्रकार के । वत्थं-वस्त्र को। ससंधियं-उपहत वस्त्र को। तस्स चेव-उसी को ही। निसिरिज्जादे देवे।णं-वाक्यालंकार में हैं। नो साइजा-स्वयं न भोगे अर्थात् जिससे वस्त्र लिया था यदि वह ग्रहण करना-लेना चाहे तो उसी को दे दे। से-वह। एगइओ-कोई एक साधु। एयप्पगारं-इस प्रकार के। निग्रोसं-निर्घोष-शब्द को। सुच्चा-सुनकर। निः-हृदय में धारण करके। जे भयंतारो-जो पूज्य तथा भय से रक्षा करने वाले साधु। तहप्पगाराणि-सथा प्रकार के। वत्थाणि-वस्त्रों को। ससंधियाणि-जो उपहत हैं। महत्तगं २-महर्त-आदि काल का उद्देश कर। जाव-यावत्। एगाहेण वा०५-एक दिन से लेकर पांच दिन तक। विप्पवसिय २-किसी ग्रामादि में ठहर कर। उवागच्छंति-आते हैं फिर उपहत हुआ वस्त्र। तह वत्थाणि-तथा प्रकार के वस्त्रों को। नो अप्पणा गिण्हंति-स्वयं ग्रहण नहीं करते। नो अन्नमन्नस्स दलयंति-न परस्पर में देते हैं। तं चेव-शेष वर्णन पूर्ववत्। जाव-यावत्। नो साइजति-नवे स्वयं भोगते हैं अर्थात् उसी को दे देते हैं। बहुवयणेण वा भाणियव्वंइसी प्रकार बहुवचन के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। से हंता-वह भिक्षुहर्ष पूर्वक स्वीकार करते हुए कहता है कि। अहमवि-मैं भी।मुहुत्तगं-मुहूर्त आदि काल का उद्देश कर। पडिहारियं-प्रतिहारकावत्थं-वस्त्र को।जाइत्तामांग कर। जाव-यावत्। एगाहेण वा०५-एक दिन से लेकर पांच दिन पर्यन्त। विप्पवसिय २-ठहर कर के पीछे। उवागमिस्सामि-आऊंगा। अवियाई-जिससे। एयं-यह वस्त्र। ममेव सिया-मेरा ही हो जाएगा यदि वह ऐसा सोचता है तो। माइट्ठाणं संफासे-उसे मातृस्थान-माया या छल का स्पर्श होता है। एवं-अतः इस प्रकार का। नो करेजा-विचार न करे।
मूलार्थ-कोई एक साधु मुहूर्त आदि काल का उद्देश्य रख कर किसी अन्य साधु से प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करके एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन और पांच दिन तक किसी ग्रामादि में निवास कर वापिस आ जाए, और वह वस्त्र उपहत हो गया हो तो वह साधु, जिसका वह वस्त्र था वह आप ग्रहण न करे, न परस्पर देवे, न उधार करे और न अदला-बदली करे तथा न अन्य किसी के पास जाकर यह कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस वस्त्र को ले लो,