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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध हुए या स्वाध्याय भूमि में तथा जंगल के लिए जाते समय अपने सभी वस्त्र साथ लेकर जाए। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु के पास आवश्यकता के अनुसार बहुत ही थोड़े वस्त्र होते थे। आगम में भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि साधु को स्वल्प एवं साधारण (असार) वस्त्र रखने चाहिएं।
इस पाठ से यह भी ध्वनित होता है कि उस युग में शहर या गांव से बाहर एकान्त में स्वाध्याय करने की प्रणाली थी। क्योंकि एकान्त स्थान में ही चित्त की एकाग्रता बनी रहती है। यह भी बताया गया है कि साधु को शौच के लिए भी गांव या शहर से बाहर जाने का प्रयत्न करना चाहिए। बिना किसी विशेष कारण के उपाश्रय में शौच नहीं जाना चाहिए।
इस सम्बन्ध में कुछ और विशेष बातें बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से एगइओ मुहुत्तगं २ पडिहारियं वत्थं जाइजा, जाव एगाहेण वा दुःति चउ० पंचाहेण वा विप्पवसिय २ उवागच्छिज्जा, नो तह वत्थं अप्पणो गिहिज्जा नो अन्नमन्नस्स दिज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा नो वत्थेण वत्थपरिणाम करिज्जा, नो परं उवसंकमित्ता एवं वइज्जा-आउ० समणा! अभिकंखसि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ? थिरं वा संतं नो पलिच्छिंदिय २ परट्ठविज्जा, तहप्पगारं वत्थं ससंधियं वत्थं तस्स चेव निसिरिज्जा नो णं साइजिजा। से एगइओ एयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा नि जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि मुहत्तगं २ जाव एगाहेण वा० ५ विप्पवसिय २ उवागच्छंति, तह वत्थाणि नो अप्पणा गिण्हंति नो अन्नमन्नस्स दलयंति तं चेव जावनो साइजंति, बहुवयणेण भाणियव्वं, से हंता अहमवि मुहत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइत्ता जाव एगाहेण वा ५ विप्पवसिय २ उवागच्छिस्सामि, अवियाई एयं ममेव सिया, माइट्ठाणं संफासे नो एवं करिज्जा॥१५०॥
छाया- स एककः मुहूर्तकं प्रातिहारिकं वस्त्रं याचेत याचित्वा यावत् एकाहेन वा यहेन वा त्र्यहेन वा चतुरहेन वा पंचाहेन वोषित्वा २ उपागच्छेत् नो तथा वस्त्रं आत्मना गृह्णीयात् नो अन्यस्मै दद्यात् नो प्रामृज्यं कुर्यात् नो वस्त्रेण वस्त्रपरिणामं कुर्यात्, नो परमुपसंक्रम्य एवं वदेत्-आयुष्मन् ! श्रमण! अभिकांक्षसि वस्त्रं धारयितुं वा परिहर्तुं वा स्थिर वा सत् परिच्छिन्द्य २ परिष्ठापयेत् तथाप्रकारं वस्त्रं ससन्धितं वस्त्रं तस्मै चैव निसृजेत् नो स्वादयेत्। स एककः एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य ये वयत्रातारः तथाप्रकाराणि वस्त्राणि ससन्धितानि, मुहूर्तकं २ यावत् एकाहेन वा० ५ उषित्वा २ उपागच्छन्ति तथाप्रकाराणि वस्त्राणि नो आत्मना गृहन्ति, नो अन्योऽन्यस्मै ददति तच्चैव नो स्वादयन्ति बहुवचनेन भाणितव्यं । स हंत अहमपि मुहूर्तकं प्रातिहारिकं वस्त्रं याचित्वा यावत् एकाहेन वा०५ उषित्वा २ उपागमिष्यामि।