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पञ्चम अध्ययन, उद्देशक २
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कामे-प्रवेश करने की इच्छा वाला। सव्वं-सर्व। चीवरमायाए-वस्त्र लेकर। गाहावइकुलं-गृहपति कुल में। निक्खमिज वा पविसिज्ज वा-निष्क्रमण और प्रवेश करे अर्थात् उपाश्रय से निकले और गृहस्थ के घर में प्रवेश करे।एवं-इसी प्रकार।बहिया-बस्ती आदि से बाहर।विहारभूमिंवा-विहार-स्वाध्याय करने की भूमि में अथवा। शियारभूमि वा-मल आदि का त्याग करने की भूमि में अथवा सामाणुगाम-ग्रामानुग्रामविहार करते समय वस्त्र लेकर ही। दूइजिजा-प्रयाण करे। अह पुण-अथ इस प्रकार जाने। तिव्वदेसियं वा-थोड़ी या बहुत। वासं वासमाणं-वर्षा बरसती हुई को। पेहाए-देख कर। जहा-जैसे। पिंडेसणाए-पिण्डैषणा अध्ययन में आहार विषयक वर्णन किया है उसी प्रकार यहां पर भी जान लेना चाहिए किन्तु। नवरं-इतना विशेष है कि। सव्वं चीवरमायाए-सर्व वस्त्रों को ग्रहण करके जाए।
मूलार्थ-संयमशील साधु या साध्वी भगवान द्वारा दी गई आज्ञा के अनुरूप एषणीय और निर्दोष वस्त्र की याचना करे और मिलने पर उन्हें धारण करे। परन्तु, विभूषा के लिए वह उन्हें न धोए और न रंगे तथा धोए हुए और रंगे हुए वस्त्रों को पहने भी नहीं। किन्तु, अल्प और असार [साधारण ] वस्त्रों को धारण करके ग्राम आदि में सुख पूर्वक विचरण करे। वस्त्रधारी मुनि का वस्त्र धारण करने सम्बन्धी यह सम्पूर्ण आचार है अर्थात् यही उसका भिक्षुभाव है।
__आहारादि के लिए जाने वाले संयमनिष्ठ साधु-साध्वी गृहस्थ के घर में जाते समय अपने वस्त्र भी साथ में लेकर उपाश्रय से निकलें और गृहस्थ के घर में प्रवेश करें। इसी प्रकार वस्ती से बाहर , स्वाध्याय भूमि एवं जंगल आदि.जाते समय तथा ग्रामानुग्राम विहार करते समय भी वे सभी वस्त्र लेकर विचरें। इसी प्रकार थोड़ी या अधिक वर्षा बरसती हुई को देखकर साधु वैसा ही आचरण करे जैसा पिंडैषणा अध्ययम में वर्णन किया गया है। केवल इतनी ही विशेषता है कि वह अपने सभी वस्त्र साथ लेकर जाए।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि आगम में वर्जित विधि के अनुसार साधु को निर्दोष एवं एषणीय वस्त्र जिस रूप में प्राप्त हुआ हो वह उसे उसी रूप में धारण करे। विभूषा की दृष्टि से साधु न तो उस वस्त्र को स्वयं धोए और न रंगे और यदि कोई गृहस्थ उसे धोकर या रंगकर दे तब भी वह उसे स्वीकार न करे। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को विभूषा के लिए वस्त्र को धोना या रंगना नहीं चाहिए। क्योंकि, वह वस्त्र का उपयोग केवल लज्जा ढकने एवं शीतादि से बचने के लिए करता है, न कि शारीरिक विभूषा के लिए। परन्तु, यदि वस्त्र पर गन्दगी लगी है या उसे देखकर किसी के मन में घृणा उत्पन्न होती है तो ऐसी स्थिति में वह उसे विवेक पूर्वक साफ करता है तो उसके लिए शास्त्रकार का निषेध नहीं है। क्योंकि, अशुचियुक्त वस्त्र के कारण वह स्वाध्याय भी नहीं कर सकेगा। अतः उसका निवारण करना आवश्यक है। विभूषा के लिए वस्त्र धोने का निषेध करने के पीछे मुख्य उद्देश्य यह रहा है कि साधु स्वाध्याय एवं ध्यान के समय को केवल अपने शरीर की सजावट के लिए वस्त्र धोने में समाप्त न करे। क्योंकि, साधु की साधना शरीर एवं वस्त्रों को सुन्दर बनाने के लिए नहीं, प्रत्युत आत्मा को स्वच्छ एवं पूर्ण स्वतंत्र बनाने के लिए है। अतः उसे अपना पूरा समय आत्म साधना में ही लगाना चाहिए।
इस सूत्र में साधु को यह आदेश भी दिया गया है कि वह आहार के लिए गृहस्थ के घर में जाते
१ निशीथ सूत्र उ०१५।