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________________ ३१२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में उत्तर गुण में लगने वाले दोषों से बचने का आदेश दिया गया है। इस में बताया गया है कि जो वस्त्र साधु के लिए खरीदा गया हो', धोया गया हो, रंगा गया हो, अच्छी तरह से रगड़ कर साफ किया गया हो, शृंगारित किया गया हो या धूप आदि से सुवासित बनाया गया हो तो साधु को वैसा वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि इस तरह का वस्त्र पुरुषान्तर कृत हो गया हो तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि जो वस्त्र मूल से साधु के लिए ही तैयार किया गया हो उसे साधु किसी भी स्थिति-परिस्थिति में स्वीकार न करे-चाहे वह पुरुषान्तर कृत हो या न हो, हर हालत में वह अकल्पनीय है। परन्तु, जो वस्त्र मूल से साधु के लिए नहीं बनाया गया है, परन्तु उसके तैयार होने के बाद साधु के निमित्त उसमें कुछ विशेष क्रियाएं की गई हैं। ऐसी स्थिति में साधु उसे तब तक स्वीकृत नहीं कर सकता, जब तक कि वह पुरुषान्तरकृत नहीं हो गया है। यदि किसी व्यक्ति ने उसे अपने उपयोग में ले लिया है, तो फिर साधु उसे ले भी सकता है। इस वस्त्र प्रकरण को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से भिक्खू वा २ से जाइं पुण वत्थाई जाणिज्जा, विरूवरूवाइं महद्धणमुल्लाइं, तंजहा-आईणगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणाणि वा आयाणि वा कायाणि वा खोमियाणि वा दुगुल्लाणि वा पट्टाणि वा मलयाणि वा पन्नुन्नाणि वा अंसुयाणि वा चीणंसुयाणि वा देसरागाणि वा अमिलाणि वा गज्जफलाणि वा फालियाणि वा कोयवाणि वां कंबलगाणि वा पावराणि वा, अन्नयराणि वा तह वत्थाई महद्धणमुल्लाइं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा। ___से भि० आइण्णपाउरणाणि वत्थाणि जाणिजा तं०-उद्दांणि वा पेसाणि वा पेसलाणि वा किण्हमिगाईणगाणि वा, नीलमिगाईणगाणि वा गोरमि० कणगाणि वा कणगकंताणि वा कणगपट्टाणि वा कणगखइयाणि वा कणगफुसियाणि वा वग्याणि वा विवग्याणि वा (विगाणि वा) आभरणाणि वा आभरणविचित्ताणि वा, अन्नयराणि तह आईणपाउरणाणि वत्थाणि लाभे १ साधु के लिए खरीदा गया वस्त्र साधु को लेना नहीं कल्पता। परन्तु, यदि उसका किसी व्यक्ति ने अपने लिए उपयोग कर लिया हो तो फिर वह वस्त्र साधु के लिए अकल्पनीय नहीं रहता है। २ यह पाठ तीनों काल के साधुओं को दृष्टि में रख कर रखा गया है। क्योंकि भगवान अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक के साधु-साध्वी पांचों रंग के वस्त्र ग्रहण कर सकते थे। या इसका उद्देश्य किसी ऐसे रङ्ग से है जो लगाने के बाद तुरन्त उड़ जाता हो। जैसे- आजकल कुछ सेण्ट एवं इतर रंगीन होते हैं और वस्त्र पर लगाते समय उनका धुंधला सारंग भी आता है परन्तु वह तुरन्त उड़ जाता है। उनका प्रयोग केवल सुगन्धि के लिए किया जाता है। ३ पहले से जल रहे धूप में उस वस्त्र को रख कर सुवासित किया गया हो ऐसा प्रतीत होता है। ,
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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