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________________ ३११ पञ्चम अध्ययन, उद्देशक १ यदि वह बहुत से शाक्य आदि श्रमण-ब्राह्मणों के लिए तैयार किया गया है और वह पुरुषान्तर हो गया तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। यह सारा प्रकरण पिण्डैषणा के प्रकरण की तरह समझना चाहिए। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी को आधाकर्म आदि दोष युक्त वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति ने एक या अनेक साधुओं या एक और अनेक साध्वियों को उद्देश्य करके वस्त्र बनाया हो तो साधु-साध्वी को वह वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि वह वस्त्र किसी शाक्य आदि श्रमण या ब्राह्मणों के लिए बनाया गया हो, परन्तु पुरुषान्तर कृत नहीं हुआ हो तो वह वस्त्र भी स्वीकार न करे। यदि वह पुरुषान्तर कृत हो गया है तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। वस्त्र ग्रहण करने या न करने की सारी विधि आहार ग्रहण करने की विधि की तरह ही है। अतः सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकरण को पिंडैषणा के प्रकरण की तरह समझना चाहिए। अर्थात् साधु को सदा निर्दोष वस्त्र ही ग्रहण करना चाहिए। ____ अब उत्तर गुणों की शुद्धि को रखते हुए वस्त्र ग्रहण की मर्यादा का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-से भि से जं. असंजए भिक्खुपडियाए कीयं वा धोयं वा रत्तं वा घटुं वा मटुं वा संपधूमियं वा तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाव नो. अह पु० पुरिसं० जाव पडिगाहिज्जा॥१४४॥ छाया-स भिक्षुर्वा स यत् असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया क्रीतं वा धौतं वा रक्तं वा घृष्टं वा मृष्टं वा सम्प्रधूपितं वा तथाप्रकारं वस्त्रं अपुरुषान्तरकृतं यावत् नो प्रतिगृह्णीयात्।अथ पुनरेवं जानीयात् पुरुषान्तरकृतं यावत् प्रतिगृह्णीयात्। पदार्थ-से भि-वह साधु अथवा साध्वी।से जं-वस्त्र के विषय में फिर यह जाने कि।असंजएअसंयत-गृहस्थ ने। भिक्खुपडियाए-साधु के लिए यदि।कीयं वा-वस्त्र मोल लिया हो। धोयं वा-धोकर रखा हो।रत्तं वा-रंग कर रखा हो। घट्टं वा-घिसा हो। मढें वा-मसला हो और। संपधूमियं वा-धूप से सुवासित किया हो तो। तहप्पगारं-तथा प्रकार के। वत्थं-वस्त्र को। अपुरिसंतरकडं-जो कि पुरुषान्तर कृत नहीं है। जाव-यावत्। नो-ग्रहण न करे। अह पुण-और यदि यह जाने कि-। पुरिसं०-पुरुषान्तरकृत है तो। जावयावत्। पडिगाहिज्जा-ग्रहण कर ले। मूलार्थ-संयमशील साधु या साध्वी को वस्त्र के विषय में यह जानना चाहिए कि यदि किसी गृहस्थ ने साधु के लिए वस्त्र खरीदा हो, धोया हो, रंगा हो, घिस कर साफ किया हो, शृंगारित किया हो या धूप आदि से सुगन्धित किया हो और वह पुरुषान्तरकृत नहीं हुआ है तो साधु-साध्वी उसे ग्रहण न करे। यदि वह पुरुषान्तर कृत हो गया है तो साधु-साध्वी उसे ग्रहण कर सकते हैं।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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