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________________ पञ्चम अध्ययन, उद्देशक १ ३०९ साणिय-सण (Jute) या वल्कल से बना हुआ वस्त्र, ४-पोत्तक-ताड़ पत्रों के रेशों से बनाया हुआ वस्त्र, ५-खोमिय-कपास से निष्पन्न वस्त्र और ६-तूलकड़े-आक के डोडों में से निकलने वाली रूई से बना हुआ वस्त्र । इन ६ तरह के वस्त्रों में सभी तरह के वस्त्रों का समावेश हो जाता है। अत: वह इनमें से किसी भी तरह का वस्त्र धारण कर सकता है। प्रस्तुत सूत्र में साधु और साध्वी के लिए वस्त्रों का परिमाण भी निश्चित कर दिया गया है। यदि साधु युवक, निरोगी, शक्ति-सम्पन्न एवं हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला हो तो वह एक ही वस्त्र ग्रहण कर सकता है, दूसरा नहीं। इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि वृद्ध, कमजोर, रोगी एवं जर्जरित शरीर वाला साधु एक से अधिक वस्त्र भी रख सकता है। साध्वी के लिए चार वस्त्रों (चादरों) का विधान किया गया है। उसमें एक चादर दो हाथ की हो, दो चादरें तीन-तीन हाथ की हों और एक चार हाथ की हो। साध्वी को उपाश्रय में रहते समय दो हाथ वाली चादर का उपयोग करना चाहिए, गोचरी एवं जंगल आदि जाते समय तीन-तीन हाथ वाली चादरों को क्रमशः काम में लेना चाहिए और अवशिष्ट चौथी (चार हाथ वाली) चादर को व्याख्यान के समय ओढ़ना चाहिए। इसका तात्पर्य इतना ही है कि आहार आदि के लिए स्थान से बाहर निकलते समय एवं व्याख्यान में परिषदा के सामने बैठते समय साध्वी अपने अधिकांश अङ्गोपाङ्गों को आवृत करके बैठे, जिससे उन्हें देखकर किसी के मन में विकार भाव जागृत न हो। . प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि उस समय भारतीय शिल्पकला एवं वस्त्र उद्योग पर्याप्त उन्नति पर था। यन्त्रों के सहयोग के बिना ही विभिन्न तरह के सुन्दर, आकर्षक एवं मजबूत वस्त्र बनाए जाते थे। अंग्रेजों के भारत में आने के पूर्व ढाका में बनने वाली मलमल इतनी बारीक होती थी कि २० गज की मलमल का पूरा थान एक बांस की नली में समाविष्ट किया जा सकता था। आगम में भी ऐसे वस्त्राभूषणों का उल्लेख मिलता है, जो वज़न में हलके और बहुमूल्य होते थे। इससे उस युग की शिल्प कला की उन्नति का स्पष्ट परिचय मिलता है। . इस (वस्त्र के) विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-से भि० परं अद्धजोयणमेराए वत्थपडिया० नो अभिसंधारिज्जा गमणाए॥१४२॥ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा परमर्द्धयोजनमर्यादायाः वस्त्रप्रतिज्ञया नो अभिसन्धारयेत् गमनाय। भंगिय-अतसीमयं अर्थात् अलसी का बना हुआ वस्त्र। - स्थानाङ्ग सूत्र, वृत्ति (आचार्य अभयदेव सूरि) भंगिय शब्द का रेशमी वस्त्र अर्थ भी होता है और आजकल एक ऐसा रेशमी वस्त्र भी मिलने लगा है, जिसके लिए कीड़ों को मारना नहीं पड़ता। इसे टसर का रेशम कहते हैं। यह रेशम भी कीड़ों से प्राप्त होता है। ये कीड़े इसका निर्माण करने के बाद स्वतः बाहर निकल जाते हैं। यह रूई की तरह होता है और उसी तरह कात कर इसका धागा बनाया जाता है। इसे भी भंगिय वस्त्र कह सकते हैं। परन्तु, साधु के लिए अलसी का बना हुआ वस्त्र यह अर्थ करना युक्ति संगत प्रतीत होता है। - लेखक
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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