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________________ ३०८ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध वस्त्रं जानीयात् तद्यथा-जांगमिकं वा भांगिकं वा साणिकं वा पोतकं वा क्षौमिकं वा तूलकृतं वा तथाप्रकारं वस्त्रं वा यो निर्ग्रन्थः तरुणः युगवान् बलवान् अल्पातंकः स्थिरसंहननः स एक वस्त्रं धारयेत् नो द्वितीयं, या निर्ग्रन्थी सा चतस्रः संघाटिका धारयेत्, एकां द्विहस्तविस्तारां, द्वे त्रिहस्तविस्तारे, एकां चतुर्हस्तविस्तारां, तथाप्रकारैः वस्त्रैः असंधीयमानैः अथपश्चात् एकमेकेन संसीव्येत्। पदार्थ- से-वह। भिक्खू वा०-साधु अथवा साध्वी। वत्थं-वस्त्र की। एसित्तए-एषणा। अभिकंखिज्जा-या गवेषणा करनी चाहे तो। से-वह-साधु। जं-जो। पुण-फिर। वत्थं-वस्त्र के विषय में। जाणिजा-इस प्रकार जाने। तंजहा-जैसे कि। जंगियं वा-जंगम-जीवों से उत्पन्न हुआ-(ऊंट आदि की ऊन से बना हुआ) अथवा। भंगियं वा-विकलेन्द्रिय जीवों के तन्तुओं से बना हुआ रेशमी वस्त्र या। साणियं वा-सण (Jute) तथा वल्कल आदि से निष्पन्न वस्त्र। पोत्तगं वा-या ताड़ पत्र आदि से बना हुआ वस्त्रं । खोमियं वाकपास आदि से बनाया गया वस्त्र या। तूलकडं वा-आक आदि की तूली-रूई से बना हुआ वस्त्र। तहप्पगारंतथा प्रकार के अन्य। वत्थं-वस्त्र को भी। धारिजा-धारण करे। जे निग्गंथे-जो निर्ग्रन्थ। तरुण-तरुणयुवावस्था में है तथा। जुगवं-तीसरे या चौथे आरे का जन्मा हुआ है। बलवं-बलवान। अप्पायंके-रोग रहित और। थिरसंघयणे-दृढ़ संहनन वाला है। से-वह। एगं वत्थं-एक वस्त्र को।धारिजा-धारण करे। नो बीयंदूसरा वस्त्र धारण न करे। जा निग्गंथी-और जो साध्वी है। सा-वह। चत्तारि संघाडीओ धारिजा-चार चादरें धारण करे। एग-एक चादर। दुहत्थवित्थारं-दो हाथ प्रमाण चौड़ी हो। दो तिहत्थवित्थाराओ-दो चादरें तीन हाथ प्रमाण चौड़ी हों और। एगं-एक। चउहत्थवित्थारं-चार हाथ प्रमाण चौड़ी हो। तहप्पगारेहि-तथाप्रकार के।वत्थेहि-वस्त्रों के। असंधिज्जमाणेहि-पृथक्-पृथक् न मिलने पर। अह-अथ। पच्छा-पश्चात्। एगमेगंएक को एक के साथ। संसिविज्जा-सी ले। मूलार्थ-संयमशील साधु या साध्वी यदि वस्त्र की गवेषणा करने की अभिलाषा रखते हों तो वे वस्त्र के सम्बन्ध में इस प्रकार जाने कि- ऊन का वस्त्र, विकलेन्द्रिय जीवों की लारों से बनाया गया रेशमी वस्त्र, सन तथा वल्कल का वस्त्र, ताड़ आदि के पत्तों से निष्पन्न वस्त्र और कपास एवं आक की तूली से बना हुआ सूती वस्त्र एवं इस तरह के अन्य वस्त्र को भी मुनि ग्रहण कर सकता है। जो साधु तरुण बलवान, रोग रहित और दृढ़ शरीर वाला है वह एक ही वस्त्र धारण करे, दूसरा न धारण करे। परन्तु साध्वी चार वस्त्र-चादरें धारण करे। उसमें एक-चादर दो हाथ प्रमाण चौड़ी, दो चादरें तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण चौड़ी होनी चाहिए। इस प्रकार के वस्त्र न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे के साथ सी ले। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु ६ तरह का वस्त्र ग्रहण कर सकता है१-जांगिक-जंगम-चलने-फिरने वाले ऊंट, भेड़ आदि जानवरों के बालों से बनाए हुए ऊन के वस्त्र, २भंगिय-विभिन्न विकलेन्द्रिय जीवों की लार से, निर्मित तन्तुओं से निर्मित रेशमी (Silk) वस्त्र', ३१ एक तरह का वस्त्र, पाट का बना हुआ वस्त्र। - प्राकृतशब्दमहार्णव, पृ० ७९२॥ भंगिय (भांगिक-भंगायाइदम् ) सन का वस्त्र, कीड़ों की लार के रस के द्वारा बना हुआ वस्त्र। - अर्धमागधी कोष, भा० ४, पृ०२।।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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