________________
पंचम अध्ययन-वस्त्रैषणा
प्रथम उद्देशक
चतुर्थ अध्ययन में भाषा समिति से सम्बद्ध विषय पर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत अध्ययन में यह बताया गया है कि भाषा समिति में प्रवृत्तशील साधु-साध्वी को किस तरह से और कैसा वस्त्र ग्रहण करना चाहिए। इस अध्ययन के दो उद्देशक हैं, पहले उद्देशक में वस्त्र ग्रहण करने की विधि तथा द्वितीय उद्देशक में वस्त्र धारण करने का उल्लेख किया गया है। वस्त्र भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का बताया गया है। द्रव्य वस्त्र तीन प्रकार का बताया गया है-१-एकेन्द्रिय जीवों के शरीर से निर्मित कपास (Cotton), सण ( Jute) आदि के वस्त्र, २-विकलेन्द्रिय जीवों के बनाए गए तारों से निष्पन्न रेशमी (Silk) वस्त्र और ३-पञ्चेन्द्रिय जीवों के बालों से बनाए गए ऊन (Woollen) के वस्त्र या कम्बल आदि।
और ब्रह्मचर्य के अठारह सहस्र गुणों को धारण करना भाव वस्त्र कहलाता है। वस्त्र दूसरों के एवं अपने मन में विकृति पैदा करने वाले गुप्तांगों को आवृत्त करने तथा.शीत-ताप से बचाने के लिए एक उपयोगी साधन है। इसी तरह मानव मन में उठने वाले विकारी भावों का क्षय या क्षयोपशम करने तथा साधक को विकारों के शीत-तापमय व अनुकूल-प्रतिकूल आघातों से बचाने के लिए १८ हजार शीलांग गुण सर्वश्रेष्ठ साधन हैं, आत्म-विकास में अत्यधिक सहयोगी हैं, इसी कारण इन्हें भाव वस्त्र कहा गया है। परन्तु, प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य वस्त्रों के सम्बन्ध में ही विचार किया गया है। क्योंकि, याचना द्रव्य वस्त्र की ही की जाती है, भाव वस्त्र की नहीं। आत्मा में स्थित अनन्त वीर्य ही भाव वस्त्र है और उसकी प्राप्ति मांग कर नहीं, प्रत्युत आत्म साधना से ही की जा सकती है। इस लिए सूत्रकार इस सम्बन्ध में यहां कुछ नहीं कह कर, यह बताते हैं कि साधक को कैसे वस्त्र की याचना करनी चाहिए। साधु के लिए कल्पनीय वस्त्रों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
- मूलम्-सेभि अभिकंखिज्जा वत्थं एसित्तए,सेजंपुणवत्थं जाणिज्जा, तंजहा- जंगियं वा भंगियं वा साणियं वा पोत्तगंवा खोमियं वा तूलकडं वा, तहप्पगारं वत्थं वा जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारिज्जा नो बीयं, जा निग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारिज्जा, एगं दुहत्थवित्थारं, दो तिहत्थवित्थाराओ, एगं चउहत्थवित्थारं, तहप्पगारेहिं वत्थेहिं असंधिज्जमाणेहिं, अहपच्छा एगमेगं संसिविज्जा॥१४१॥
छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा अभिकांक्षेत् वस्त्रमेषितुं (अन्वेष्टुम् ) स यत् पुनः