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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक २
३०५ वा, एतत् प्रकारां असावद्यां यावत् भाषेत, एवं रूपाणि कृष्ण इति वा ५ गन्धान सुरभिगन्ध इति वा २ रसान् तिक्तइति वा ५ स्पर्शान्-कर्कश इति वा ८।
पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा २-साधु या साध्वी। तहप्पगाराइं-तथा प्रकार के।सद्दाइं-शब्दों को। सुणिजा-सुने और सुनकर।तहावि-तथापि। एयाइं-इनके सम्बन्ध में। एवं-इस प्रकार। नो वइज्जा-न बोले। तंजहा-जैसे कि-।सुसद्देति वा-सुन्दर शब्द सुनकर बोलने वाले के प्रति राग भाव लाकर यह कहना, आपने यह बहुत अच्छा कहा यह बड़ा मङ्गलकारी है तथा।दुसद्देति वा-दुःशब्द-बुरे शब्द को सुन कर बोलने वाले के प्रति द्वेष भाव लाकर यह कहना-तुमने बहुत बुरा कहा, यह बड़ा ही अनिष्टकारी है। एयप्पगारं-इस प्रकार की। सावजंसावद्य। भासं-भाषा को। नो भासिज्जा-न बोले। से भि०-वह साधु या साध्वी शब्दों को सुनता हुआ।तहावितथापि। ताइं-उन शब्दों के सम्बन्ध में। एवं-इस प्रकार। वइज्जा-बोले। तंजहा-जैसे कि। सुसह-सुशब्द-सुन्दर शब्द को। सुसद्दित्ति वा-यह सुन्दर शब्द है, इस प्रकार कहे तथा। दुसरं-दुष्ट शब्द को। दुसहिति वा-यह दुष्ट शब्द है इस प्रकार कहे। एयप्पगारं-इस प्रकार की। असावज्ज-असावद्य-निष्पाप। जाव-यावत् भाषा को। भासिज्जा-बोले।एवं-इसी प्रकार। रूवाइं-रूप के विषय में। किण्हेति वा ५-कृष्ण को कृष्ण यावत् श्वेत को श्वेत कहे। गंधाइं-गन्ध के विषय में। सुरभिगंधित्ति वा २-सुगन्ध को सुगन्ध और दुर्गन्ध को दुर्गन्ध कहे। रसाइं-रसादि के विषय में भी। तित्ताणि वा ५-तिक्त को तिक्त यावत् मधुर को मधुर कहे। फासाइं-स्पर्श के विषय में। कक्खडाणि वा८-कर्कश को कर्कश यावत् मृदु को मृदु कहे। तात्पर्य कि जो पदार्थ जिस तरह का हो उसको उसी प्रकार का बताए।
___मूलार्थ-संयमशील साधु और साध्वी किसी भी शब्द को सुनकर वह किसी भी सुशब्द को दुःशब्द अर्थात् शोभनीय शब्द को अशोभनीय एवं मांगलिक को अमांगलिक न कहे। किन्तु सुशब्द अच्छे शब्द को सुन्दर और दुःशब्द को दुःशब्द और असुन्दर शब्द को असुन्दर ही कहे। इसी प्रकार रूपादि के संबन्ध में भी ऐसी ही भाषा का प्रयोग करना चाहिए। कुरूप को कुरूप
और सुन्दर को सुन्दर तथा सुगन्धित एवं दुर्गन्धित पदार्थों को क्रमशः सुगंध एवं दुर्गन्ध युक्त तथा कटु को कटुक और कर्कश को कर्कश कहे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु को ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस और ८ स्पर्श के सम्बन्ध में कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इसमें स्पष्ट बताया गया है कि साधु को जैसे वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का पदार्थ हो उससे विपरीत नहीं कहना चाहिए। राग-द्वेष के वश अच्छे पदार्थ को उससे विपरीत नहीं कहना चाहिए। राग-द्वेष के वश अच्छे पदार्थ को बुरा और बुरे पदार्थ को अच्छा नहीं बताना चाहिए। कुछ व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए कुरूपवान व्यक्ति को सुन्दर एवं रूप सम्पन्न को कुरूप बताने का भी प्रयत्न करते हैं। परन्तु, राग-द्वेष एवं स्वार्थ से ऊपर उठे हुए साधु किसी भी पदार्थ का गलत रूप में वर्णन न करें। उसे सदा सावधानी पूर्वक यथार्थ एवं निर्दोष वचन का ही प्रयोग करना चाहिए। वर्ण की तरह गन्ध, रस एवं स्पर्श के सम्बन्ध में भी यथार्थ एवं निर्दोष भाषा का व्यवहार करना चाहिए।
१ सभिक्षुर्यद्यप्येतान् शब्दान् शृणुयात् तथापि नैवं वदेत् तद्यथा शोभन: शब्दोऽशोभनो वा मांगलिको ऽमांगलिको वा, इत्त्ययं न व्याहर्तव्यः । विपरीतंत्वाह-यथावस्थितशब्दप्रज्ञापनाविषये एतद् वदेत्, तद्यथा- "सुसइंति" शोभनशब्दं शोभनमेवब्याद अशोभनंत्वशोभनमिति ॥ एवंरूपादिसूत्रमपिनेयम्। (वृत्तिकार)