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________________ ३०४ श्री आचारांग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध न हो साधु के बोलने योग्य नहीं है। अतः भाषा समिति में ऐसे शब्द बोलने का भी निषेध किया गया है जिससे प्रत्यक्ष या परोक्ष में किसी जीव की हिंसा की प्रेरणा मिलती हो या हिंसा का समर्थन होता हो। साधु प्राणी मात्र का रक्षक है। अतः बोलते समय उसे प्रत्येक प्राणी के हित का ध्यान रखना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में इस बात का उल्लेख किया गया है कि साधु को किसी गाय-भैंस, मृग आदि पशुपक्षी एवं जलचर तथा वनस्पति (पेड़-पौधों) आदि के सम्बन्ध में भी ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिससे उन जीवों को किसी तरह का कष्ट पहुंचे। किसी भी पशु-पक्षी के मोटापन को देखकर साधु को यह नहीं कहना चाहिए कि इस स्थूल काय जानवर में पर्याप्त चर्बी है, इसका मांस स्वादिष्ट होता है, यह पका कर खाने योग्य है या यह गाय दोहन करने योग्य है, यह बैल गाड़ी में जोतने या हल चलाने योग्य है और इसी तरह ये पक्व फल खाने योग्य हैं या इन्हें घास में रखकर पकाने के पश्चात् खाना चाहिए, या यह धान या औषधि पक गई है, काटने योग्य है या इन वृक्षों की लकड़ी महलों में स्तम्भ लगाने, द्वार बनाने, अर्गला बनाने के लिए उपयुक्त है या तोरण बनाने या कुएं से पानी निकालने या पानी रखने का पात्र, तख्त, नौका आदि बनाने योग्य है, आदि सावध भाषा का कभी प्रयोग नहीं करना चाहिए। साधु को भाषा के प्रयोग में सदा विवेक रखना चाहिए और सत्यता के साथ जीवों की दया का भी ध्यान रखना चाहिए। उसे सदा निष्पापकारी सत्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त उदगदोण जोगाईया' एक पद है और इसका अर्थ है-कुएं आदि से पानी निकालने या पानी रखने का काष्ठ पात्र । दशवैकालिक सूत्र में भी इस का एक पद में ही प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत सूत्र में 'रूढाइ वा, थिराइ वा गभियाइ वा' आदि पदों में जो बार-बार 'इ' का प्रयोग किया गया है, वह पाद पूर्ति के लिए ही किया गया है। , इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-से भिक्खूवा तहप्पगाराइं सद्दाइं सुणिजा तहावि एयाइं नो एवं वइज्जा तंजहा-सुसद्देत्ति वा दुसद्देति वा एयप्पगारं भासं सावजं नो भासिज्जा॥ से भि. तहावि ताइं एवं वइज्जा, तंजहा-सुसह-सुसद्दित्ति वा दुसदं दुसद्दित्ति वा एयप्पगारं असावजं जाव भासिज्जा, एवं रूवाइं किण्हेत्ति वा ५ गंधाई सुरभिगंधित्ति वा २ रसाई त्तित्ताणि वा ५ फासाइं कक्खडाणि वा ८॥१३९॥ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा तथाप्रकारान् शब्दान्शृणुयात् तथापि एतान् नैवं वदेत्, तद्यथा-सुशब्दः इति वा दुःशब्दः इति वा एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां नो भाषेत्। स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा तथापि तान् एवं वदेत् तद्यथा सुशब्दं सुशब्द इति वा दुशब्दं दुःशब्द इति १ अलं पासायखंभाणं, तोरणाणि गिहाणि य। फलिह अग्गल नावाणं, अलं उदगदोणिणं॥- दशवैकालिक सूत्र, ७, २७। २ इ, जे, राः पादपूरणे अर्थात् इकार, जेकार और रकार यह तीनों अव्यय पादपूर्ति के लिए हैं। - - प्राकृत व्याकरण, पा० २, सू०२१७।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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