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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक २ संयमशील साधु अथवा साध्वी किसी उद्यान (बगीचे) पर्वत या वन आदि में कुछ विशाल वृक्षों को देख कर उनके सम्बन्ध में भी इस प्रकार न कहे कि यह वृक्ष मकान आदि में लगाने योग्य है, यह तोरण के योग्य है, और यह गृह के योग्य है तथा इसका फलक बन सकता है, इसकी अर्गला बन सकती है और यह नौका के लिए भी अच्छा है। इसकी उदकद्रोणी (जल भरने की टोकणी) अच्छी बन सकती है और यह पीठ के योग्य है, इसकी चक्र नाभि अच्छी बनेगी, यह गंडी के लिए अच्छा है, इसका आसन अच्छा बन सकता है और यह पर्यंक (पलंग) के योग्य है, इससे शकट आदि का निर्माण किया जा सकता है और यह उपाश्रय बनाने के लिए उपयुक्त है। साधु को इस प्रकार की सावध भाषा का व्यवहार नहीं करना चाहिए। किन्तु, उक्त स्थानों में अवस्थित.विशाल वृक्षों को देख कर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे कि ये वृक्ष अच्छी जाति के हैं, दीर्घ और वृत्त तथा बड़े विस्तार वाले हैं। इनकी शाखाएं चारों ओर फैली हुई हैं, ये वृक्ष मन को प्रसन्न करने वाले अभिरूप और नितान्त सुन्दर हैं। साधु इस प्रकार की असावद्य-निष्पाप भाषा का व्यवहार करे।
संयमशील साधु अथवा साध्वी वन में बहुत परिमाण में उत्पन्न हुए फलों को देख कर उनके संबन्ध में भी इस प्रकार न कहे कि ये फल पक गए हैं, अतः खाने योग्य हैं या ये फल पलाल आदि में रख कर पकाने के पश्चात् खाने योग्य हो सकते हैं। इनके तोड़ने का समय हो गया है। ये फल अभी बहुत कोमल हैं, क्योंकि इनमें अभी तक गुठली नहीं पड़ी हैं और ये फल खण्ड-खण्ड करके खाने योग्य हैं। विवेकशील साधु इस प्रकार की सावध भाषा न बोले। किन्तु, आवश्यकता पड़ने पर वह इस प्रकार कहे कि ये वृक्ष फलों के भार से नम्र हो रहे हैं। अर्थात् ये उनका भार सहन करने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं। ये वृक्ष बहुत फल दे रहे हैं। ये फल बहुत कोमल हैं, क्योंकि अभी तक इनमें मुठली नहीं पड़ी हैं, इत्यादि। साधु इस प्रकार की पाप रहित संयत भाषा का व्यवहार करे।
संयमशील साधु अथवा साध्वी बहुत परिमाण में उत्पन्न हुई औषधियों को देख कर उनके सम्बन्ध में भी इस प्रकार न कहे कि यह औषधि (धान्य विशेष) पक गई है। यह अभी नीली अर्थात् कच्ची या हरी है। यह काटने योग्य या भूजने या खाने योग्य है। साधु इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा को न बोले। किन्तु, अधिक परिमाण में उत्पन्न हुई औषधियों को देखकर यदि उनके संबन्ध में बोलने की आवश्यकता हो तो साधु इस प्रकार बोले कि यह अभी अंकुरित हुई है। यह औषधि अधिक उत्पन्न हुई है। यह स्थिर है और यह बीजों से भरी हुई है, यह सरस है। यह अभी गर्भ में ही है या उत्पन्न हो गई है। साधु इस प्रकार की असावद्य-निष्पाप भाषा का व्यवहार करे।
___ हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भाषा के प्रयोग में विशेष सावधानी रखने का आदेश दिया गया है। साधु चाहे सजीव पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ कहे या निर्जीव पदार्थ के सम्बन्ध में कुछ बोले, परन्तु, उसे इस बात का सदा ख्याल रखना चाहिए कि उसके बोलने से किसी भी प्राणी को कष्ट न हो। असत्य एवं मिश्र भाषा की तरह दूसरे जीवों की हिंसा का कारण बनने वाली भाषा भी, भले ही वह सत्य भी क्यों