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________________ २९७ चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक २ पयत्तकडे इ वा भयं भद्देत्ति वा ऊसढं ऊसढे इ वा रसियं २ मणुन्नं २ एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा॥१३७॥ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा अशनं वा ४ उपस्कृतं तथाविधं नो एवं वदेत्, तद्यथा- सुकृतमिति वा सुष्ठुकृतमिति वा साधुकृतमिति वा कल्याणमिति वा करणीयमिति वा एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां यावत् नो भाषेत। सभिक्षुर्वा भिक्षुकी वा अशनं वा ४ उपस्कृतं प्रेक्ष्य एवं वदेत्, तद्यथा आरम्भकृतमिति वा सावद्यकृतमिति वा प्रयत्नकृतमिति वा भद्रकं भद्रमिति वा उच्छ्रितं उच्छ्रितमिति वा रसितं २ मनोज्ञं २ एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् भाषेत्। पदार्थ-से भिक्खू वा २-वह-संयमशील साधु या साध्वी। असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार अर्थात् अशन पान खादिम और स्वादिम रूप। उवक्खडियं-उपस्कृत-तैयार किए हुए।तहाविहं-तथाविध आहार-पदार्थ को। एवं-इस प्रकार। नो वइज्जा-न कहे-। तं-जैसे कि-। सुकडेति वा-यह भोजन अच्छा बनाया हुआ है। सुठुकडे इ वा-यह भोजन बहुत अच्छा बनाया गया है। साहुकडे इ. वा-यह भोजन श्रेष्ठ बनाया गया है। कल्लाणे इवा-यह भोजन कल्याणकारी है तथा।करणिज्जे इवा-यह कार्य अवश्य करने योग्य है। एयप्पगारं-साधु इस प्रकार की। सावजं-सावद्य। जाव-यावत्-प्राणियों का घात करने वाली। भासंभाषा। नो भासिज्जा-न बोले।से भिक्खू वा २-वह साधु या साध्वी। उवक्खडियं-उपस्कृत-तैयार किए हुए। असणं वा ४-अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चतुर्विध आहार को। पेहाय-देखकर। एवं वइज्जा-इस प्रकार कहे। तंजहा-जैसे कि। आरम्भकडेति वा-यह आहार आरम्भ कृत अर्थात् आरम्भ से बनाया गया है। सावज्ज कडे इ वा-यह सावध कार्य है। पयत्तकडे इवा-यह आहार बड़े प्रयत्न से तैयार किया मया है, या। भद्दयं-भद्र पदार्थ को। भद्देति वा-भद्र कहे। ऊसढं-वर्ण, गन्ध, रसादि से युक्त पदार्थ को। ऊसढे इ वा-वर्ण, गन्ध, रसादि युक्त कहे और। रसियं २-सरस को सरस तथा। मणुन्नं २-मनोज्ञ को मनोज्ञ कहे। एयप्पगारं-इस प्रकार की। अस असावज्ज-असावद्य-निष्पाप। जाव-यावत प्राणियों का विनाश न करने वाली। भासं-भाषा को। भासिज्जा-बोले। - मूलार्थ-संयमशील साधु और साध्वी उपस्कृत-तैयार हुए-अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर इस प्रकार न कहे कि यह आहारादि पदार्थ सुकृत है, सुष्ठुकृत है और साधु कृत है तथा कल्याणकारी और अवश्य करणीय है। साधु इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोले। . किन्तु संयमशील साधु या साध्वी उपस्कृत अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर इस प्रकार कहे कि यह आहारादि पदार्थ बड़े आरम्भ से बनाया गया है। यह सावध पाप युक्त कार्य है यह अत्यन्त यत्न से बनाया हुआ है, यह भद्र अर्थात् वर्णगंध रसादि से युक्त है, सरस है और मनोज्ञ है, साधु ऐसी निरवद्य एवं निष्पाप भाषा का प्रयोग करे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु-साध्वी को आहार आदि के सम्बन्ध में यह नहीं कहना चाहिए कि यह आहार अच्छा बना है, स्वादिष्ट बना है, बहुत अच्छे ढंग से
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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