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श्री आचारांग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
के मन में क्रोध नहीं, प्रत्युत हर्ष भाव पैदा होता है, अतः वह ऐसी मधुर एवं निर्दोष भाषा बोल सकता है। इसी प्रकार साधु अथवा साध्वी बावड़ी, कुंएं, खेतों के क्यारे यावत् घरों को देखकर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार न कहे कि यह अच्छा बना हुआ है, बहुत सन्दर बना हुआ है, इस पर अच्छा कार्य किया गया है, यह कल्याणकारी है और यह कार्य करने योग्य है । इस प्रकार की भाषा से सावद्य क्रिया का अनुमोदन होता है. अतः साधु इस प्रकार की सावद्य भाषा न बोले। किन्तु उन बावड़ी यावत् घरों को देखकर इस प्रकार कहे कि यह आरम्भ कृत है, सावध है और यह प्रयत्न साध्य है, तथा यह देखने योग्य है, रूपसम्पन्न है और प्रतिरूप है। इस प्रकार की निरवद्य भाषा का प्रयोग करे।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति गण्डी, कुष्ट (कोढ़) और मधुमेह इत्यादि भयंकर रोगों से पीड़ित हो या उसका हाथ, पैर, नाक, कान, ओष्ठ आ कोई अंग कटा हुआ हो, तो साधु को उसे उस रोग एवं कटे हुए अंगों के नाम से सम्बोधित करके नहीं बुलाना चाहिए। जैसे कि-कोढ़ के रोगी को कोढ़ी, अन्धे को अन्धा या नाक कटे हुए व्यक्ति को नकटा कह कर पुकारना साधु को नहीं कल्पता । क्योंकि, पहले तो वह उक्त बीमारियों एवं अंगोपांगों की हीनता
कारण परेशान, दुःखी एवं चिन्तित है । फिर उसे उस रूप में सम्बोधित करने से उसके मन को अवश्य ही आघात पहुंचेगा और उसके मन में साधु के प्रति दुर्भावना जागृत होगी। वह यह भी सोच सकता है कि यह साधु कितना असभ्य एवं असंस्कृत है कि साधना के पथ पर गतिशील होने के पश्चात् भी इसकी दूसरे व्यक्ति को चिढ़ाने, परेशान करने एवं मजाक उड़ाने की दुष्ट मनोवृत्ति नहीं गई है। वस्तुत: वेश के साथ अभी इसके अन्तर जीवन का परिवर्तन नहीं हुआ है। इससे उसके मन में साधु से प्रतिशोध लेने की भावना भी जागृत हो सकती है। अस्तु साधु को किसी के मन को चुभने वाली भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। इससे दूसरे व्यक्ति की मानसिक हिंसा होती है, इसलिए साधु को प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह रोगी हो, अपंग हो, अंगहीन हो सदा प्रिय एवं मधुर सम्बोधनों से सम्बोधित करना चाहिए ।
प्रस्तुत सूत्र में गण्ड, कुष्ट और मधुमेह तीन रोगों का नाम निर्देश किया गया है और 'कुट्ठीति वा जाव' पद में यावत् शब्द से उन रोगों की ओर भी इशारा कर दिया है जिसका उल्लेख आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के धूताध्ययन में किया गया है। ये तीनों असाध्य रोग माने गए हैं। गण्ड-यह वात प्रधान रोग होता है, इस रोग का आक्रमण होने पर मनुष्य के पैर एवं गिट्टे में सूजन आ जाता है और कोढ़ एवं मधुमेहका रोग तो असाध्य रोग के रूप में प्रसिद्ध ही है। अतः साधु को इन असाध्य रोगों से पीड़ित एवं अंगहीन व्यक्ति को पापकारी एवं मर्म भेदी शब्दों से सम्बोधित नहीं करना चाहिए ।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - से भिक्खू वा २ असणं वा ४ उवक्खडियं तहाविहं नो एवं वइज्जा, तं० - सुकडेत्ति वा सुट्ठकडे इ वा साहुकडे इ वा कल्लाणे इ वा करणिजे इ वा, एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा | से भिक्खू वा २ असणं वा ४ उवक्खडियं पेहाय एवं वइज्जा - तं० आरंभकडेत्ति वा सावज्जकडेत्ति वा