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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक २ ओजस्वी को- यदि व्याधि युक्त व्यक्ति में कोई विशिष्ट गुण हो तो उसको सामने रखकर उसे आमन्त्रित करे और यदि वह ओजस्वी है तो उसको।ओयंसित्ति वा-ओजस्वी कह कर सम्बोधित करे, इसी प्रकार। तेयंसी-तेजस्वी को। तेयसीति वा-तेजस्वी-तेज वाला कहे। जसंसी-यशस्वी-यश वाले को। जसंसी इ वा-यशस्वी कह कर पुकारें। वच्चंसी-वर्चस्वी जिसका वचन आदेय हो अथवा लब्धि युक्त हो तो उसे। वच्चंसी इ वा-वर्चस्वी कहे। अभिरूयंसी-रूप सम्पन्न को रूपवान कहे। पडिरूवंसी-प्रतिरूप को प्रतिरूप शब्द से बुलाए, इसी प्रकार। पासाइयं २-प्रसाद गुण युक्त को प्रासादीय और। दरिसणिजं-दर्शनीय को। दरिसणीयत्ति वा-दर्शनीय कहकर सम्बोधित करे। जेयावन्ने-जो जितने भी। तहप्पगारा-तथा प्रकार के हैं उनको। तहप्पगाराहि-तथा प्रकार की।भासाइं-भाषाओं से। बुइया २-सम्बोधित करने पर वे।माणवा-मनुष्य। नो कुप्पंति-क्रोधित नहीं होते हैं। अतः। से यावि-वे भी। तहप्पगारा-जो कि उक्त प्रकार के हैं उनके प्रति। एयप्पगाराहि-इस प्रकार की। भासाहि-भाषाओं द्वारा। अभिकंख-सोच विचार कर। भासिज्जा-बोले।
... से भिक्खू वा-वह साधु या साध्वी। जहावि-यद्यपि। एगइयाइं-कितने एक। रूवाइं-रूपों को। पासिजा-देखता है। तंजहा-जैसे कि-। वप्पाणि वा-खेतों की क्यारिएं। जाव-यावत्। गिहाणि वा-घर आदि।तहावि-तथापि। ताइं-उनको देखकर।एवं-इस प्रकार।नो वइजा-नकहे।तंजहा-जैसे कि-।सुक्कडेइ वा-अमुक वस्तु को देखकर यह अच्छी बनी है। सुठुकडेइ वा-यह बहुत सुन्दर बनी है। साहुकडेइ वा-साधु कृत है। कल्लाणे इ वा-यह कल्याणकारी है। करणिज्जे इ वा-यह करने योग्य है इत्यादि। एयप्पगारं-इस प्रकार की। भासं-भाषा जो कि। सावजं-सावध है। जाव-यावत्। नो भासिज्जा-न बोले। से भिक्खू वावह साधु या साध्वी। जहावि-यद्यपि। एगइयाइं-कितने एक। रूवाइं-रूपों को। पासिज्जा-देखता है। तंजहाजैसे कि-। वप्पाणि वा-खेतों की क्यारिएं। जाव-यावत्। गिहाणि वा-घर आदि। तहावि-तथापि। ताइंउनको देखकर।एवंवइज्जा-इस प्रकार कहे। तंजहा-जैसे कि-।आरम्भकडेइ वा-यह आरम्भकृत है। सावजकडे इवा-यह सावध कृत है, तथा। पयत्तकडे इ वा-यह कार्य प्रयत्नकृत-प्रयत्नसाध्य है, इसी प्रकार। पासाइयंप्रासादीय को। पासाइए वा-प्रासादीय और। दरिसणिज-दर्शनीय को।दरिसणीयंति वा-दर्शनीय कहे तथा। अभिरूवं-अभिरूप-रूप सम्पन्न को। अभिरूवंति वा-अभिरूप और। पडिरूवं-प्रतिरूप को। पडिरूवंति वा-प्रतिरूप बतलावे। एयप्पगारं-इस प्रकार की। भासं-भाषा को।असावजं-असावद्य। जाव-यावत् निर्दोष है।भासिज्जा-बोले।
मूलार्थ-संयमशील साधु और साध्वी किसी रोगी आदि को देखकर एसा न कहे- हे गंडी! हे कुष्टी ! हे मधुमेही! इत्यादि इसी प्रकार यावत् मात्र रोग हैं उनका नाम लेकर उस व्यक्ति को-जो कि उन रोगों से पीड़ित है:- आमन्त्रित न करे। इसी प्रकार जिसका हाथ, पैर, कान, नाक, ओष्ठ आदि कटे हुए हों, उसे कटे हाथ वाला, लंगड़ा, कटे कान वाला, नकटा या कटे हुए ओष्ठ वाला आदि शब्दों से संबोधित न करे। इस प्रकार की भाषा के बोलने से लोग कुपित हो सकते हैं, उनके मन को आघात लगता है, अतः भाषा समिति का विवेक रखने वाला साधु ऐसी भाषा का प्रयोग न करे। परन्तु, यदि किसी व्यक्ति में कोई गुण हो तो उसे उस गुण से सम्बोधित करके बुला सकता है। जैसे कि-हे ओजस्वी, हे तेजस्वी, हे यशस्वी, हे वर्चस्वी, हे अभिरूप, हे प्रतिरूप, हे प्रेक्षणीय और हे दर्शनीय इत्यादि। इस प्रकार की निरवद्य भाषा के प्रयोग से सुनने वाले मनुष्य