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श्री आचारांग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
क्योंकि इस तरह की भाषा बोलने से संयम में अनेक दोष लगते हैं, अतः साधु को ऐसी सदोष भाषा का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'संमुच्छिए वा निवइए' पाठ का अर्थ है- बादल सम्मूर्छिम जल बरसाता है। अर्थात् सूर्य की किरणों के ताप से समुद्र, सरिता आदि में स्थित जल वाष्प रूप में ऊपर उठता है और ऊपर ठण्डी हवा आदि के निमित्त से फिर पानी के रूप को प्राप्त करके बादलों के रूप मे आकाश में घूमता है और हवा, पहाड़ एवं बादलों की पारस्परिक टक्कर से बरसने लगता है'।
इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु को सदा मधुर, प्रिय, यथार्थ एवं निर्दोष भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए ।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें ।
॥ प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
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इस विषय में विशेष जानकारी करने के जिज्ञासुओं को स्थानाङ्ग सूत्र के चतुर्थ स्थान का अवलोकन करना चाहिए।