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________________ चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक १ २८३ प्रत्यक्ष और परोक्ष वचन आदि को भली-भांति जानकर बोले। यदि उसे एक वचन बोलना हो तो वह एक वचन बोले यावत् परोक्ष वचन पर्यन्त जिस वचन को बोलना हो उसी को बोले। तथा स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद अथवा स्त्री-पुरुष और नपुंसक वेद या जब तक निश्चय न हो, तब तक निश्चयात्मक वचन न बोले, जैसे कि- यह स्त्री ही है इत्यादि। अतः विचार पूर्वक भाषा समिति से युक्त हुआ साधु भाषा के दोषों को त्याग कर संभाषण करे। साधु को भाषा के चारों भेदों को भी जानना चाहिए, १ सत्य भाषा २ मृषा-असत्य भाषा, ३ मिश्र भाषा और ४ असत्यामृषा-जो न सत्य है, न असत्य और न सत्यासत्य किन्तु असत्यामृषा या व्यवहार भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। जो कुछ मैं कहता हूं-भूतकाल में जो अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं और वर्तमान काल में जो तीर्थंकर हैं, तथा भविष्यत् काल में जो तीर्थंकर होंगे, उन सब ने इसी प्रकार से चार तरह की भाषा का वर्णन किया है, करते हैं और करेंगे। तथा ये सब भाषा के पुद्गल अचित्त हैं, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं, तथा उपचय और अपचय अर्थात् मिलने और बिछुड़ने वाले एवं विविध प्रकार के परिणामों को धारण करने वाले होते हैं। ऐसा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तीर्थंकर देवों ने प्रतिपादन किया है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु को भाषा शास्त्र का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे व्याकरण का भली-भांति बोध होना चाहिए। जिससे वह बोलते समय विभक्ति, लिंग एवं वचन आदि की गलती न कर सके। इससे स्पष्ट होता है कि साधु के जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान के साथ व्यवहारिक शिक्षा का भी महत्त्व है। साधक को जिस भाषा में अपने विचार अभिव्यक्त करने हैं, उसे उस भाषा का परिज्ञान होना जरूरी है। यदि उसे उस भाषा का ठीक तरह से बोध नहीं है तो वह बोलते समय अनेक गलतियां कर सकता है और कभी-कभी उसके द्वारा प्रयुक्त भाषा उसके अभिप्राय से विरुद्ध अर्थ को भी प्रकट कर सकती है। इसलिए साधक को भाषा का इतना ज्ञान अवश्य होना चाहिए जिससे वह अपने भावों को स्पष्ट एवं शुद्ध रूप से अभिव्यक्त कर सके। _ भाषा के सम्बन्ध में दूसरी बात यह है कि साधु-साध्वी को निश्चयात्मक एवं संदिग्ध भाषा नहीं बोलनी चाहिए। इसका कारण यह है कि कभी परिस्थितिवश वह कार्य उसी रूप में नहीं हुआ तो साधु के दूसरे महाव्रत में दोष लगेगा। इसी तरह जिस बात के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है उसे प्रकट करने से भी दूसरे महाव्रत में दोष लगता है। अतः साधु को बोलते समय पूर्णतया विवेक एवं सावधानी रखनी चाहिए। तीसरी बात यह है कि मनुष्य क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकारों के वश भी झूठ बोलता है। जिस समय मनुष्य के मन में क्रोध की आग धधकती है उस समय वह यह भूल जाता है कि मुझे क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए। इसी तरह जब मनुष्य के जीवन में अभिमान, माया एवं लोभ का अन्धड़ चलता है तो उस समय भी भाषा के दोष एवं गुणों का सही ज्ञान नहीं रख सकता और उन मनोविकारों के वश वह असत्य भाषा का भी प्रयोग कर देता है। इसलिए साधु को सदा इन कषायों से ऊपर उठकर बोलना चाहिए। यदि कभी इनका उदय हो रहा हो तो साधु को उस समय मौन
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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