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श्री आचारांग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध सत्य और मृषा है। तं-उसका। चउत्थं नाम-चौथी। असच्चामोसं-असत्यामृषा अर्थात् व्यवहार। भासज्जायंभाषा है। से बेमि-यह जो कुछ मैं कह रहा हूं यह सब। जे-जो। अईया-अतीत काल में। जे य-और जो। पडुप्पन्ना-वर्तमान काल में तथा। जे-जो।अणागया-अनागत-भविष्यत् काल में अरहंता भगवन्तो-अरिहन्त भगवान हो चुके हैं, हैं या होंगे। ते सव्वे-वे सब। एयाणि चेव चत्तारि भासज्जायाइं-यही चार प्रकार की भाषाएं। भासिंसु-बोलते थे। भासंति-बोलते हैं और।भासिस्संति वा-बोलेंगे, तथा इन्हीं भाषाओं की।पन्नविंसु वा ३-उन्होंने प्ररूपणा की, प्ररूपणा करते हैं और करेंगे। सव्वाइं च णं एयाइं-ये सभी प्रकार की भाषाएं। अचित्ताई-अचित्त हैं। वण्णमंताणि-वर्ण युक्त। गन्धमंताणि-गन्ध युक्त। रसमंताणि-रस युक्त और। फासमंताणि-स्पर्श युक्त हैं, अर्थात् सभी प्रकार के भाषा द्रव्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श युक्त हैं। चओवचयाइंउपचय और अपचय वाले अर्थात् मिलने और बिछड़ने वाले हैं तथा ये। विप्परिणामधम्माइं-विविध प्रकार के परिणाम-धर्म वाले। भवंतीति-होते हैं ऐसा।अक्खायाई-तीर्थंकरों ने कहा है।
मूलार्थ-संयमशील साधु और साध्वी वचन के आचार को सुन कर और हृदय में धारण करके वचन अनाचार को (जिनका पूर्व के मुनियों ने आचरण नहीं किया) जानने का प्रयत्न करे। जो मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ से वचन बोलते हैं अर्थात् इनके वशीभूत होकर भाषण करते हैं, तथा जो किसी के दोष को जानते हुए अथवा न जानते हुए भी उसके मर्म को उदघाटन करने के लिए कठोर वचन बोलते हैं ऐसी भाषा सावध है, अतः विवेकशील साधु इसे छोड़ दे। और वह निश्चयात्मक भाषा भी न बोले, जैसे कि-कल अवश्य ही वर्षा होगी, अथवा नहीं होगी। यदि कोई साधु आहार के लिए गया हो, तब अन्य साधु उसके लिए ऐसा न कहे कि वह साधु अशनादि चतुर्विध आहार अवश्य लेकर आएगा, अथवा बिना लिए ही आएगा। और यदि किसी साधु को भिक्षार्थ गए हुए किसी कारण से कुछ विलम्ब हो गया हो, तो संयमशील साधु अन्य साधुओं के प्रति इस प्रकार भी न कहे कि वह साधु जो कि भिक्षा के लिए गया हुआ है, वहां पर भोजन करके
आएगा अथवा आहार किए बिना ही आएगा। इस तरह भूतकाल की किसी बात का जब तक निश्चय न हो जाए तब तक निश्चयात्मक वचन न बोले। तथा-राजा अवश्य आया था, अथवा (वर्तमानकाल में) आता है अथवा [ भविष्यत् काल में ] अवश्य आएगा, अथवा तीनों काल में न आया था, न आता है और न आएगा, इस प्रकार के निश्चयात्मक वचन भी न बोले। जिस प्रकार काल के विषय में कहा गया है उसी प्रकार क्षेत्र के विषय में भी समझना चाहिए। यथा पीछे अमुक व्यक्ति अमुक नगरादि में आया था, अथवा नहीं आया था, इसी प्रकार अमुक व्यक्ति आता है या नहीं आता है, और अमुक व्यक्ति अमुक नगरादि में आएगा अथवा नहीं आएगा। तात्पर्य यह है कि जिस विषय में वस्तु तत्त्व का पूर्णतया निश्चय न हो उसके विषय में निश्चयात्मक वचन साधु को नहीं बोलना चाहिए। अतः विचार पूर्वक निश्चय करके भाषा समिति से समित हुआ साधु, भाषा का व्यवहार करे अर्थात् भाषा समिति का ध्यान रखता हुआ संयत भाषा में बोले। एक वचन, द्विवचन और बहुवचन, तथा स्त्रीलिंग वचन, पुरुष लिंग वचन और नपुंसक लिंग वचन, एवं अध्यात्म वचन, प्रशंसा युक्त वचन, निन्दायुक्त वचन, निन्दा और प्रशंसा युक्त वचन, भूतकाल सम्बन्धि वचन, वर्तमानकाल सम्बन्धि वचन और भविष्यतकाल सम्बन्धि वचन, तथा