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________________ २७४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अन्तराले तस्य विहं स्यात् स यत् पुनः विहं जानीयात् अस्मिन् खलु विहे बहवः आमोषकाः उपकरणप्रतिज्ञया संपिण्डिताः आगच्छेयुः न तेभ्यो भीतः उन्मार्गेण गच्छेत्, यावत् समाधिना, ततः संयतमेव ग्रामानुग्रामं दूयेत गच्छेत् । पदार्थ - से भिक्खू - वह साधु या साध्वी । गा० दू० - ग्रामानुग्राम विहार करते हुए। से उसके । अन्तरा-मार्ग के मध्य में आए हुए । गोणं-वृषभ को । वियालं सर्प को । पडिवहे - रास्ते में देखकर। जावयावत् । चित्तचिल्लडं-चीते को, चीते के बच्चे को । वियालं क्रूर सांप को । प० - मार्ग में। पेहाए - देखकर । सिं-उनसे । भीओ - डरता हुआ। उम्मग्गेणं - उन्मार्ग से । नो गच्छिज्जा-गमन न करे और । मग्गाओ-मार्ग से । उम्मग्गं - उन्मार्ग को । नो संकमिज्जा-संक्रमण न करे। गहणं वा गहन-वृक्ष समूह से युक्त स्थान । वणं वावन । दुग्गं वा-विषम स्थान इनमें । न पविसिज्जा- प्रवेश न करे और रुक्खंसि वृक्ष पर । नो दुरूहिज्जा - न चढ़े। महइमहालयंसि - अति विस्तृत गहरे जल में । कायं - शरीर को । नो विउसिज्जा- तिरोहित न करे। वाडं वाबाड़ का। सरणं- शरण। सेणं वा सेना का अथवा । सत्थं वा किन्हीं अन्य साथियों का आश्रय । नो कंखिज्जान चाहे । अप्पुस्सुए-राग-द्वेष से रहित होकर । जाव-यावत् । समाहीए -समाधि युक्त होकर। तओ-तदनन्तर। संजयामेव संयमशील साधु । गामाणुगामं - एक ग्राम से दूसरे ग्राम को। दूइज्जिज्जा - विहार करे। से भिक्खू०वह साधु अथवा साध्वी । गामाणुगामं - ग्रामानुग्राम। दूइज्जमाणे - विहार करता हुआ। अंतरा से उसके मार्ग में। विहं सिया- अटवी हो तो । से- वह साधु । जं- जो । पुण- फिर । विहं अटवी को । जाणिज्जा - जाने । खलु - निश्चयार्थक है। इमंसि-इस। विहंसि-अटवी में । बहवे बहुत से। आमोंसगा - चोर। उवगरणपडिया - साधु के उपकरण को लेने के लिए। संपिंडिया - एकत्र होकर यदि सामने । गच्छिज्जा आ जाएं तो । तेसिं-उनसे । भीओ - डर कर । उम्मग्गेण उन्मार्ग से । नो गच्छिज्जा-गमन न करे। जाव- यावत् । समाहीए -समाधियुक्त होकर। तओ-तदनन्तर। संजयामेव यनापूर्वक । गामाणुगामं ग्रामानुग्राम। दूइज्जिज्जा - विहार करे । मूलार्थ - संयमशील साधु अथवा साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में यदि मदोन्मत्त वृषभ - बैल या विषैले सांप या चीते आदि हिंसक जीवों का साक्षात्कार हो तो उसे देखकर साधु को भयभीत नहीं होना चाहिए तथा उनसे डरकर उन्मार्ग में गमन नहीं करना चाहिए और मार्ग से उन्मार्ग का संक्रमण भी नहीं करना चाहिए। और गहन वन एवं विषम स्थान में भी साधु प्रवेश न करे, एवं न विस्तृत और गहरे जल में ही प्रवेश करे और न वृक्ष पर ही चढ़े। इसी प्रकार वह सेना और अन्य साथियों का आश्रय भी न ढूंढे, किन्तु राग-द्वेष से रहित होकर यावत् समाधि-पूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे । यदि साधु या साध्वी को विहार करते हुए मार्ग में अटवी आ जाए तो साधु उसको जान ले, जैसे कि अटवी में चोर होते हैं और वे साधु के उपकरण लेने के लिए इकट्ठे होकर आते हैं, यदि अटवी में चोर एकत्रित हो कर आएं तो साधु उनसे भयभीत न हो तथा उनसे डरकर उन्मार्ग की ओर न जाए किन्तु राग-द्वेष से रहित होकर यावत् समाधि-पूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करने में प्रवृत्त रहे। हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु की निर्भयता के सर्वोत्कृष्ट रूप का वर्णन किया गया
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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