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तृतीय अध्ययन, उद्देशक ३ भी साधु को नहीं बोलनी चाहिए। और यह भी बताया गया है कि साधु को सत्य एवं व्यवहार भाषा बोलनी चाहिए और मिश्र एवं असत्य भाषा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। साधु दूसरे महाव्रत में असत्य भाषण का सर्वथा त्याग करता है और आगम में उसे अणुमात्र (स्वल्प) झूठ बोलने का भी निषेध किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे प्रसंगों पर मौन रहना चाहिए। चाहे उस पर कितना भी कष्ट क्यों न आए, फिर भी जानते हुए भी उसे यह नहीं कहना चाहिए कि मैं जानता हूँ और झूठ भी नहीं बोलना चाहिए।
इसी विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-से भिक्ख. गा. दू० अंतरा से गोणं वियालं पडिवहे पेहाए जाव चित्तचिल्लडं वियालंप० पेहाए नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणंगच्छिज्जा नो मग्गाओ उम्मग्गं संकमिज्जा नो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसिजा नो रुक्खंसि दुरूहिज्जा नो महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिजा नो वाडं वा सरणं वा सेणं वा सत्यं वा कंखिजा अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ संजयामेवगामाणुगामं दूइजिजा॥से भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया,से जं पुण विहं जाणिजा, इमंसि खलु विहंसि बहवेआमोसगा उवगरणपडियाए संपिडिया गच्छिज्जा, नो तेसिं भीओ उम्मग्गेण गच्छिज्जा जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा॥१३०॥
छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा ग्रामानुग्रामं दूयमानः अन्तराले तस्य गां व्यालं प्रतिपथे प्रेक्ष्य यावत् चित्रकं व्यालं प्रतिपथे प्रेक्ष्य न तेभ्यो भीतः उन्मार्गेण गच्छेत्, न मार्गतः उन्मार्ग संक्रामेत्, न गहनं वा वनं वा दुर्ग वा अनुप्रविशेत्त् न वृक्षं आरोहेत् न महति महालये उदके कायं व्युत्सृजेत्, न वाटं वा शरणं वा सेनां वा सार्थं वा कांक्षेत् अल्पोत्सुकः यावत् समाधिना, ततः संयतमेव ग्रामानुग्रामं दूयेत। स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा ग्रामानुग्रामं दूयमानः
१ तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी।
सच्चा वि सा न वत्तव्या, जओ पावस्स आगमो॥ - दशवकालिक सूत्र ७, ११ २ चउण्हं खलु भासाणं परिसंखाय पन्नवं।
दुई विणयं सिक्खे, दो न भासिज्ज सव्यसो॥ - दशवकालिक सूत्र ७,१ ३ अहावरे दुच्चे भन्ते ! महव्यए मुसावायाओ वेरमणं।
सव्वं भंते ! मुसावायं पच्चक्खामि॥-दशवकालिक सूत्र ४ ४ एयं च दोसं दळूणं, नायपुत्तेण भासियं।
अणुमायपि मेहावी, मायामोसं विवज्जए। - दशवैकालिक सूत्र ५,५१।