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तृतीय अध्ययन, उद्देशक ३
२७५ है। इसमें बताया गया है कि यदि साधु को रास्ते में उन्मत्त बैल, शेर आदि हिंसक जन्तु मिल जाएं या कभी मार्ग भूल जाने के कारण भयंकर अटवी में गए हुए साधु को चोर, डाकू आदि मिल जाएं तो मुनि को उनसे भयभीत होकर इधर-उधर उन्मार्ग पर नहीं जाना चाहिए, न वृक्ष पर चढ़ना चाहिए और न विस्तृत एवं गहरे पानी में प्रवेश करना चाहिए, परन्तु राग-द्वेष से रहित होकर अपने मार्ग पर चलते रहना चाहिए।
प्रस्तुत प्रसंग साधु की साधुता की उत्कृष्ट साधना का परिचायक है। वह अभय का देवता न किसी को भय देता है और न किसी से भयभीत होता है। क्योंकि, प्राणी जगत को अभयदान देने वाला साधक कभी भय ग्रस्त नहीं होता। भय उसी प्राणी के मन में पनपता है, जो दूसरों को भय देता है या जिसकी साधना में, अहिंसा में अभी पूर्णता नहीं आई है। क्योंकि भय एवं अहिंसा का परस्पर विरोध है। मानव जीवन में जितना-जितना अहिंसा का विकास होता है उतना ही भय का ह्रास होता है और जब जीवन में पूर्ण अहिंसा साकार रूप में प्रकट हो जाती है तो भय का भी पूर्णतः नाश हो जाता है। अस्तु अहिंसा निर्भयता की निशानी है।
यह वर्णन पूर्ण अहिंसक साधक को ध्यान में रखकर किया गया है। सामान्यतः सभी साधु हिंसा के त्यागी होते हैं, फिर भी सबकी साधना के स्तर में कुछ अन्तर रहता है। सब के जीवन का समान रूप से विकास नहीं होता। इसी अपेक्षा से वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र को जिनकल्पी मुनि की साधना के लिए बताया है। क्योंकि स्थविर कल्पी मुनि की यदि कभी समाधि भंग होती हो तो हिंसक जीवों से युक्त मार्ग का त्याग करके अन्य मार्ग से भी आ-जा सकता है। आगम में भी लिखा है कि यदि मार्ग में हिंसक जन्तु बैठे हों या घूम-फिर रहे हों तो मुनि को वह मार्ग छोड़ देना चाहिए । . वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र जो जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध बताया है। हिंसक जन्तुओं से भयभीत न होने के प्रसंग में तो यह युक्ति संगत प्रतीत होता है। परन्तु, अटवी में चोरों द्वारा उपकरण छीनने के प्रसंग में जिनकल्पी की कल्पना कैसे घटित होगी ? क्योंकि उनके पास वस्त्र एवं पात्र आदि तो होते ही नहीं, अतः उनके लूटने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होगा। इसका समाधान यह है कि आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में वृत्तिकार ने एक, दो और तीन चादर रखने वाले जिनकल्पी मुनि का भी वर्णन किया है, उन्होंने कुछ जिनकल्पी मुनियों के उत्कृष्ट १२ उपकरण स्वीकार किए हैं। अतः इस दृष्टि से इस साधना को जिनकल्पी मुनि की साधना मानना युक्तिसंगत ही प्रतीत होता है।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा. गा. दू० अन्तरा से आमोसगा-संपिडिया गच्छिज्जा, ते णं आ० एवं वइज्जा आउ० स० ! आहर एयं वत्थं वा ४ देहि निक्खिवाहि, तं नो दिज्जा निक्खिविजा, नो वंदिय २ जाइजा, नो अञ्जलिं कटु जाइज्जा, नो कलुणवडियाए जाइज्जा, धम्मियाए जायणाए जाइज्जा, तुसिणीयभावेण वा उवेहिज्जा ते णं आमोसगा सयं करणिजंति कटु
साणं सूइयं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं। संडिब्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवजए॥ - दशवैकालिक सूत्र, ५, १२।