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________________ २६६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध दर्शनीय स्थलों की ओर अपना ध्यान न लगाकर यत्नापूर्वक अपना रास्ता तय करना चाहिए। यहां यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि सूत्रकार ने दर्शनीय स्थलों को इस तरह से देखने के लिए इन्कार किया है, जिससे किसी के मन में साधु के प्रति सन्देह उत्पन्न होता हो या उसके मन में विकारी भाव जागृत होता हो। परन्तु, इसका अर्थ यह नहीं है कि साधु उस तरफ से निकलते हुए आंखों को मूंद कर चले। साधु अपनी गति से चलता है और आंखों के सामने आने वाले दृश्य उसके सामने आएं तो वह आंखें बन्द नहीं करेगा, परन्तु उस तरफ विशेष गौर से न देखता हुआ स्वाभाविक गति से अपना रास्ता तय करेगा। प्रस्तुत सूत्र में दर्शनीय स्थानों के प्रसंग में- व्यन्तर आदि देव मन्दिर का वर्णन किया गया है, परन्तु जिन मन्दिर का उल्लेख नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय जिन मन्दिर नहीं थे। यदि उस समय जिन मन्दिर की परम्परा होती तो सूत्रकार उसका भी अवश्य उल्लेख करते। इस सत्र से यह भी जात होता है कि उस समय राजा गांव या शहर के बाहर जंगल में गायों एवं घोड़े आदि पशुओं के चरने के लिए कुछ गोचर भूमि या चरागाह छोड़ते थे, जिन पर किसी तरह का कर नहीं लिया जाता था। इससे यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि उस समय पशु रक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। इसके अतिरिक्त खेत, जलाशय, गुफाओं आदि का उल्लेख करके उस युग की वास्तु कला एवं संस्कृति पर विशेष प्रकाश डाला गया है। यदि साधु को आचार्य एवं उपाध्याय आदि के साथ विहार करना हो तो उन्हें किस तरह चलना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं- .. __मूलम्- से भिक्खू वा २ आयरियउवज्झा गामा० नो आयरियउवज्झायस्स हत्थेण वा हत्थं जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव आयरियउ० सद्धिं जाव दूइजिजा॥से भिक्खू वा आय० सद्धिं दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पा० एवं वइज्जा-आउसंतो! समणा ! के तुब्भे ? कओ वा एह ? कहिं वा गच्छिहिह ? जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से भासिज्ज वा वियागरिज वा, आयरियउवज्झायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं करिज्जा, तओ सं० अहाराइणिए वा दूइजिजा॥से भिक्खू वा अहाराइणियं गामा० दू० नो राइणियस्स हत्थेण हत्थं जाव अणासायमाणे तओ सं० अहाराइणियं गामा० दू०॥ से भिक्खू वा २ अहाराइणियं गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवगच्छिज्जा, ते णं पाडिवहिया एवं वइज्जाआउसंतो! समणा ! के तुब्भे ? जे तत्थ सव्वराइणिए से भासिज वा वागरिज्ज वा, राइणियस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा, तओ संजयामेव अहाराइणियाए गामाणुगामं दूइजिज्जा ॥१२८॥
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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