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________________ तृतीय अध्ययन, उद्देशक ३ २६५ के जो । सत्ता-सत्व - जीव हैं वो साधु की उक्त चेष्टा को देखकर। उत्तसिज्ज वा त्रास को प्राप्त होंगे। वित्तसिज्ज वा- वित्रास विशेष रूप से त्रास पाएंगे। वाडं वा सरणं वा आश्रय को। कंखिज्जा चाहेंगे अथवा | मे-मुझे। अयं समणे - यह श्रमण। वारेइत्ति - हटाता है इस प्रकार जान कर भागेंगे। अह - इसलिए। भिक्खूणं-भिक्षुओं को। पुव्वो वा दिट्ठा - तीर्थंकरादि ने पहले ही यह आदेश दिया है कि । जं- साधु इस प्रकार के स्थानों की। बाहाओ - भुजाओं को। पगिज्झिय-उ - ऊपर उठाकर के । नो निज्झाइज्जा- न देखे । तओ - तदनन्तर । संजयामेवसाधु यत्नापूर्वक । आयरियउवज्झाएहिं सद्धिं - आचार्य और उपाध्यायादि के साथ । गामाणुगामं ग्रामानुग्राम । दूइज्जिज्जा - विहार करे । मूलार्थ - साधु अथवा साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में यदि खेत की क्यारियां यावत् गुफाएं, पर्वत के ऊपर के घर, भूमिगृह, वृक्ष के नीचे या ऊपर का निवास स्थान, पर्वत - गुफा, वृक्ष के नीचे व्यन्तर का स्थान, व्यन्तर का स्तूप और व्यन्तरायतन, लोहकारशाला यावत् भवनगृह आएं तो इनको अपनी भुजा ऊपर उठाकर, अंगुलियों को फैला कर, शरीर को ऊंचा - नीचा करके न देखे। किन्तु यत्नापूर्वक अपनी विहार यात्रा में प्रवृत्त रहे। यदि मार्ग में नदी के समीप निम्न- प्रदेश हो या खरबूजे आदि का खेत हो या अटवी में घोड़े आदि पशुओं के घास के लिए राजाज्ञा से छोड़ी हुई, भूमी - बीहड़ एवं खड्डा आदि हों, नदी से वेष्टित भूमि हो, निर्जल प्रदेश और अटवी हो, अटवी में विषम स्थान हो, वन हो और वन में भी विषम स्थान हो, इसी प्रकार पर्वत, पर्वत पर का विषम स्थान, कूप, तालाब, झीलें, नदियां, बावड़ी, और पुष्करिणी और • दीर्घिका अर्थात् लम्बी बावड़िएं, गहरे एवं कुटिल जलाशय, बिना खोदे हुए तालाब, सरोवर, सरोवर की पंक्तियां और बहुत से मिले हुए तालाब हों तो इनको भी अपनी भुजा ऊपर उठाकर या अंगुली पसार कर, शरीर को ऊंचा - नीचा करके न देखे, कारण कि, केवली भगवान इसे कर्मबन्धन का कारण बताते हैं, जैसे कि उन स्थानों में मृग, पशु-पक्षी, सांप, सिंह, जलचर, स्थलचर और खेचर जीव होते हैं, वे साधु को देखकर त्रास पाएंगे, वित्रास पाएंगे और किसी बाड़ की शरण चाहेंगे तथा विचार करेंगे कि यह साधु हमें हटा रहा है, इसलिए भुजाओं को ऊंची करके साधु न देखे किन्तु यत्ना पूर्वक आचार्य और उपाध्याय आदि के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ संयम का पालन करे। हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को विहार करते समय रास्ते में पड़ने वाले दर्शनीय स्थलों को अपने हाथ को ऊपर उठाकर या अंगुलियों को फैलाकर या कुछ ऊंचा होकर या झुक कर नहीं देखना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि इससे वह अपने गन्तव्य स्थान पर कुछ देर से पहुंचेगा, जिससे उसकी स्वाध्याय एवं ध्यान साधना में अन्तराय पड़ेगी और किसी सुन्दर स्थल को देखकर उसके मन में विकार भाव भी जाग सकता है और उसे इस तरह झुककर या ऊपर उठकर ध्यान से देखते हुए देखकर किसी के मन में साधु के प्रति सन्देह भी उत्पन्न हो सकता है। यदि संयोग से उस दिन या उस समय के आस-पास उक्त स्थान में आग लग जाए या चोरी हो जाए तो उसके अधिकारी साधु पर इसका दोषारोपण भी कर सकते हैं। अतः इन सब दोषों से बचने के लिए साधु को मार्ग में पड़ने वाले
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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