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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
हों, तो अन्य मार्ग के होते हुए इस प्रकार के विषम मार्ग से गमन न करे। केवली भगवान कहते हैं कि यह मार्ग दोष युक्त होने से कर्म बन्धन का कारण है। जैसे कि पैर आदि के फिसलने तथा गिर पड़ने से शरीर के किसी अंग-प्रत्यंग को आघात पहुंचने के साथ-साथ जो वृक्ष, गुच्छ गुल्म और तायें एवं तृण आदि हरितकाय को पकड़ कर चलना या उतरना है और वहां पर जो पथिक आतें हैं उनसे हाथ मांगकर अर्थात् हाथ के सहारे की याचना करके और उसे पकड़ कर उतरना है, ये सब दोष युक्त हैं, इसलिए उक्त सदोष मार्ग को छोड़कर अन्य निर्दोष मार्ग से एक ग्राम से दूसरे ग्राम की ओर प्रस्थान करे । तथा यदि मार्ग में यव और गोधूम आदि धान्य, शकट, रथ, स्वकीय राजा की या पर राजा की सेना चल रही हो, तब नाना प्रकार की सेना के समुदाय को देखकर, यदि अन्य गन्तव्य मार्ग हो तो उसी मार्ग से जाए किन्तु कष्टोत्पादक इस सदोष मार्ग से जाने का प्रयत्न न करे। इस मार्ग से जाने में कष्टोत्पत्ति की सम्भावना है। जैसे कि जब उस मार्ग से साधु जाएगा तो सम्भव है उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक को कहे कि आयुष्मन् ! यह श्रमण हमारी सेना का भेद लेने आया है । अतः इसे भुजाओं से पकड़ कर खैंचो अर्थात् आगे-पीछे करो, और तदनुसार वह सैनिक साधु को पकड़ कर खँचे, परन्तु साधु को उस समय उस पर न प्रसन्न और न रुष्ट होना चाहिए, किन्तु उसे समभाव एवं समाधि पूर्वक एक ग्राम से दूसरे ग्राम को विहार करने का प्रयत्न करना चाहिए।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु को तीन बातों का ध्यान रखने का आदेश दिया है - १. नदी पार करके किनारे पर पहुंचने के बाद वह अपने पैरों में लगा हुआ कीचड़ हरितकाय (हरी वनस्पतिघास आदि) से साफ न करे और न इस भावना से हरियाली पर चले कि इस पर चलने से मेरे पैर स्वतः ही साफ हो जाएंगे, २. यदि अन्य मार्ग हो तो जिस मार्ग में खेत की क्यारियां, खड्डे, गुफाएं आदि पड़ती हों उस विषम मार्ग से न जाए, क्योंकि पैर फिसल जाने से वह गिर पड़ेगा और परिणाम स्वरूप शरीर चोट आएगी या कभी बचाव के लिए वृक्ष आदि को पकड़ना पड़ेगा, इससे वनस्पति कायिक जीवों की हिंसा होगी और ३. जिस मार्ग पर सेना का पड़ाव हो या सैनिक घूम रहे हों तो अन्य मार्ग के होते हुए उस मार्ग से भी न जाए। क्योंकि वे साधु को गुप्तचर समझकर उसे परेशान कर सकते हैं एवं कष्ट भी दे सकते हैं। कभी अन्य मार्ग न होने पर जिस मार्ग पर सेना का पड़ाव हो उस मार्ग से जाते हुए साधु को यदि कोई सैनिक पकड़ कर कष्ट देने लगे तो उस समय उसे उस पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। ऐसे विकट समय में भी उसे समभाव पूर्वक उस वेदना को सहन करना चाहिए ।
इससे स्पष्ट होता है कि साधु को अपने पैरों में लगी हुई मिट्टी को साफ करने के लिए वनस्पति काय की हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैसे अपवाद मार्ग में मास में एक बार महानदी पार करने का आदेश दिया गया है, वैसे वृक्ष पर चढ़ने एवं हरितकाय को कुचलते हुए चलने का आदेश नहीं दिया गया है, अपितु उसका निषेध किया गया है और वृक्ष पर चढ़ने वाले को प्रायश्चित का अधिकारी बताया है ।
इस तरह साधु को वनस्पति काय की हिंसा न करते हुए एवं विषम मार्ग तथा सेना से युक्त रास्ते का त्याग करके सम मार्ग से विहार करना चाहिए। जिससे स्व एवं पर की विराधना न हो ।
जे भिक्खू सचित्त रुक्खं दुरूहइ दुरूहंतं वा साइज्जइ ।
. निशीथ सूत्र, ११, १३ ।
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