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________________ तृतीय अध्ययन, उद्देशक २ २५९ नो उज्जु० - किन्तु सीधा न जाए अर्थात् अन्य मार्ग के सद्भाव में उक्त विषम मार्ग से गमन न करे। केवली - केवली भगवान कहते हैं कि यह कर्म बन्धन का कारण है। से वह साधु । तत्थ-उस निषिद्ध मार्ग में । परक्कममाणेचलता हुआ कदाचित् । पयलिज्ज वा २ - फिसल कर गिर पड़े, अथवा । से वह भिक्षु । तत्थ-उस स्थान पर । पयलमाणे वा-फिसलता एवं गिरता हुआ । रुक्खाणि वा वृक्षों को अथवा । गुच्छाणि वा गुच्छों को । 1 मावा - अथवा गुल्मों को । लयाओ-लताओं को । बल्लीओ वा वल्लियों अथवा । तिणाणि-तृणों को । गणाणि वा अथवा आकीर्ण वनस्पति को । अवलंबिय २ पकड़ २ कर । उत्तरिज्जा-उतरे अथवा । जे तत्थजो वहां पर। पडिपहिया-प्रति पथिक प्रतिपान्थ । उवागच्छंति-आते हैं। ते-उनसे । पाणी जाइज्जा २ - हाथ मांग २ कर; जैसे कि हे आयुष्मन् ! तू मुझे अपना हाथ दे जिसे पकड़कर मैं उतर सकूं। तओ-तदनन्तर। संजयामेवयत्नापूर्वक । अवलंबिंय २ - उसका सामने से आने वाले पथिक का हाथ पकड़ २ कर । उत्तरिज्जा-उतरे इन दोषों को देखता हुआ साधु विषम मार्ग को छोड़कर। तओ - तदनन्तर । सं० - यनायुक्त साधु । गा०- ग्रामानुग्राम। दू०विहार करे। से भिक्खू वा वह साधु अथवा साध्वी । गामा० दूइज्जमाणे - ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ । सेउसके। अंतरा-मार्ग में अर्थात् मार्ग के मध्य में । जवसाणि वा-यव और गोधूमादि धान वा । सगडाणि वाशकट आदि गड्डा - गड्डी आदि । रहाणि वा अथवा रथ अथवा । सचक्काणि-स्वचक्र- स्वकीय राज्य सेना । परचक्काणि वा - पर चक्र पर राजा की सेना । सेणं वा सेना को । विरूवरूवं-नाना प्रकार के । संनिरुद्धंएकत्र मिले हुए संघ को । पेहाए-देखकर। सइपरक्कमे-जाने योग्य अन्य मार्ग के सद्भाव में। संजयामेवयत्नापूर्वक । परक्कमिज्जा-उसी मार्ग में जाने का प्रयत्न करे किन्तु । नो० उ०-सरल-सीधे मार्ग से न जाए कारण कि उधर से जाने पर अनेक प्रकार के कष्टों की सम्भावना है यथा- जब साधु सेना युक्त मार्ग में प्रयाण करेगा तब । णं-वाक्यालंकार में है । से वह । परो-सेनापति आदि साधु को देखकर । सेणागओ-सेना में रहने वाला पुरुष किसी से । वइज्जा - कहे कि । आउसंतो- हे आयुष्मन् सद् गृहस्थ ! एस णं - यह । समणे - १ - श्रमण साधु । सेणाएसेना का। अभिनिवारियं-गुप्तचरी ( जासूसी) । करेइ-करता है अर्थात् यह श्रमण हमारी सेना का भेद लेता फिरता है। णं-वाक्यालंकार में है । से- इसकी । बाहाए भुजाओं को। गहाय-पकड़ कर । आगसह-आकर्षित करो अर्थात् आगे-पीछे खैंचो। णं- पूर्ववत् । से वह । परो अन्य आज्ञा पाने वाला व्यक्ति उस साधु को । बाहाहिंभुजाओं से। गहाय-पकड़ कर । आगसिज्जा- खींच कर आगे-पीछे करे। तं- तो वह साधु । नो सुमणे सिया-न तो प्रसन्न हो और न रुष्ट हो किन्तु । जाव यावत् । समाहिए- समभाव से विचरे । तओ - तदनन्तर । सं०-संयतसाधु। गामा०-ग्रामानुग्राम। दूइ० - विहार करे । मूलार्थ - साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम में विचरते हुए मिट्टी और कीचड़ से भरे हुए पैरों को , हरितकाय का छेदन कर, तथा हरे पत्तों को एकत्रित कर उनसे मसलता हुआ मिट्टी को न उतारे, और न हरितकाय का वध करता हुआ उन्मार्ग से गमन करे। जैसे कि ये मिट्टी और कीचड़ से भरे हुए पैर हरी पर चलने से हरितकाय के स्पर्श से स्वतः ही मिट्टी रहित हो जाएंगे, ऐसा करने पर साधु को मातृस्थान (कपट ) का स्पर्श होता है। अतः साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए। किन्तु, पहले ही हरी से रहित मार्ग को देखकर यत्नपूर्वक गमन करना चाहिए। और यदि मार्ग के मध्य में खेतों के क्यारे हों, खाई हो, कोट हो, तोरण हो, अर्गला और अर्गलापाश हो, गर्त हो तथा गुफाएं
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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