________________
२५६
- श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध नो आमजिज वा-स्पर्श न करे। जाव-यावत्। नो-आतापित न करे, धूप में न बैठे। अह पु०-अथ फिर इस प्रकार जाने कि। मे-मेरा। काए-शरीर। विगओदए-विगतोदक-सचित्त जल से रहित हो गया है तथा। छिन्नसिणेहे-किंचिन्मात्र भी आर्द्र-गीला नहीं रहा। तहप्पगारं-तथा प्रकार के। कार्य-शरीर को।आमजिज वाहाथ से स्पर्श यावत् पोंछे और। पयाविज वा-सूर्य का आतापदे अर्थात् जल को अचित्त हुआ जानकर शरीर आदि को पोंछे सुखावे। तओ-तदनन्तर। सं०-यत्नापूर्वक। गामा०-ग्रामानुग्राम। दूइज्जिज्जा-विहार करे।
___ मूलार्थ- साधु या साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यदि मार्ग में जंघा प्रमाण जल पड़ता हो तो उसे पार करने के लिए साधु सिर से लेकर पैर तक शरीर की प्रतिलेखना करके एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखकर, जैसे भगवान ने ईर्यासमिति का वर्णन किया है उस के अनुसार उस पानी के स्रोत को पार करना चाहिए। उस नदी में चलते समय मुनि को हाथों और पैरों का परस्पर स्पर्श नहीं करना चाहिए।और शारीरिक शान्ति के लिए या दाह उपशान्त करने के लिए गहरे और विस्तार वाले जल में भी प्रवेश नहीं करना चाहिए और उसे यह अनुभव होने लगे कि मैं उपधि अर्थात् उपकरणादि के साथ जल से पार नहीं हो सकता तो उपकरणादि को छोड़ दे, और यदि यह जाने कि मैं उपकरणादि के साथ पार हो सकता हूं तब उपकरण सहित पार हो जाए। परन्तु, पार पहुंचने के पश्चात् जब तक उसके शरीर से जल बिन्दु टपकते रहें और जब तक शरीर गीला रहे तब तक जल के किनारे पर ही खड़ा रहे और तब तक अपने शरीर को हाथ से स्पर्श भी न करे यावत् आतापना भी न देवे। जब तक शरीर बिलकुल सूख न जाए अर्थात् उसको यह निश्चय हो जाए कि मेरा शरीर पूर्णतया सूख गया है, तब शरीर को प्रमार्जना करके ईसिमिति पूर्वक ग्रामानुग्राम विचरने का प्रयत्न करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि विहार करते समय रास्ते में नदी आ जाए और उसमें जंघा प्रमाण पानी हो और उसके अतिरिक्त अन्य मार्ग न हो तो मुनि उसे पार करके जा सकता है। इसके लिए पहले वह सिर से पैर तक अपने शरीर का प्रमार्जन करे। इस प्रसंग में वृत्तिकार का कहना है कि मुख से नीचे के भाग का रजोहरण से और उससे ऊपर के भाग का मुखवस्त्रिका से प्रमार्जन करे। परन्तु, मुखवस्त्रिका से प्रमार्जन की बात आगम अनुकूल प्रतीत नहीं होती। क्योंकि, मुखवस्त्रिका का प्रयोग भाषा की सावद्यता को रोकने एवं वायुकायिक जीवों की रक्षा की दृष्टि से किया जाता है न कि मुंह आदि पोंछने के लिए। शरीर आदि का प्रमार्जन करने के लिए रजोहरण एवं प्रमाणनिका रखने का विधान है। और प्रमार्जनिका शरीर के प्रमार्जन के लिए ही रखी गई है। अतः यहां रजोहरण एवं प्रमानिका से शरीर का प्रमार्जन करना ही युक्ति संगत प्रतीत होता है।
___ इस तरह शरीर का प्रमार्जन करके विवेक पूर्वक नौका पर सवार होने के प्रकरण में बताई गई विधि के अनुसार साधु एक पैर जल में और दूसरा पैर स्थल (पानी के ऊपर के आकाश प्रदेश) पर रखकर गति करे। परन्तु, भैंसे की तरह पानी को रौंदता हुआ न चले और मन में यह भी कल्पना न करे कि मैं पानी में उतर तो गया हूँ अब कुछ गहराई में डुबकी लगाकर शरीर की दाह को शमन्त कर लूं। उसे चाहिए कि वह अपने हाथ-पैरों को भी परस्पर स्पर्श न करता हुआ, अप्कायिक जीवों को विशेष पीड़ा न