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________________ पोंछक तृतीय अध्ययन, उद्देशक २ २५३ यदि सरिता की धारा में बहते समय कमजोरी के कारण वह उपकरणों के बोझ को सहने में असमर्थ हो तो उसे चाहिए कि उन्हें विवेक पूर्वक धीरे से नदी में त्याग दे। इस प्रकार नदी के तट पर पहुंचने के पश्चात् वह तब तक स्थिर खड़ा रहे जब तक उसका शरीर एवं उसके वस्त्र आदि सूख न जाएं। परन्तु, वह अपने भीगे हुए वस्त्रों को निचोड़ कर धूप में सुखाने का तथा अपने शरीर को वस्त्र से छकर या धूप में खड़ा होकर सुखाने का प्रयत्न भी नहीं करे। जब उसका शरीर स्वभाविक रूप से सुख जाए तब वह वहां से गांव की ओर विहार करे। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार का कहना है कि यदि वहां चोर आदि का भय हो तो वह अपने हाथों को लम्बा फैलाकर गीला शरीर भी सुखाकर गांव की ओर जा सकता है परन्तु, आगम में इस अपवाद का उल्लेख नहीं मिलने से यह जरा विचारणीय एवं चिन्तनीय है। प्रस्तुत पाठ में नदी पार करके किनारे पर आने के पश्चात् उसे ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करने का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु वृत्तिकार ने इसका उल्लेख किया है। इसका कारण यह है कि यदि आगम में बताई गई विधि से प्रवृत्ति न की गई हो तो उसकी शुद्धि के लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। अन्यथा प्रतिक्रमण की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। ___आगम में मांस में दो या तीन बार महानदी का उल्लंघन करने का निषेध किया गया है तथा उसका प्रायश्चित भी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि मास में एक बार महानदी पार करने का निषेध नहीं है, न उसे सबल दोष ही माना गया है और न उसके लिए प्रायश्चित का ही विधान किया गया है। आगम में यह भी बताया गया है कि यदि कोई साध्वी जल में गिर गई हो तो साधु उसे पकड़कर निकाल ले । आगम में यह भी बताया गया है कि एक समय में समुद्र के जल में दो एवं नदी के जल में ३ जीव सिद्ध हो सकते हैं। इससे सूर्य के उजाले की तरह यह साफ हो जाता है कि आत्मा की शुद्धि एवं अशुद्धि भावों पर आधारित है। दुर्भाव पूर्वक की गई द्रव्य हिंसा ही पापकर्म के बन्ध का कारण हो सकती है। आगम में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि विवेक एवं यत्ना पूर्वक चलते समय यदि साधु के पैर के नीचे आकर कुक्कट आदि कोई जीव मर जाए तब भी साधु को ईर्यापथिक क्रिया अथवा पुण्य कर्म का बन्ध होता है, सांप्रायिकी क्रिया का बन्ध नहीं होता । अस्तु वीतराग भगवान की आज्ञा के अनुसार विवेक पूर्वक नदी पार करने का कोई प्रायश्चित नहीं बताया गया है और न उसके लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण का ही उल्लेख किया गया है। क्योंकि प्रायश्चित विवेक पूर्वक, सावधानी से कार्य करने का नहीं होता, वह तो असावधानी एवं आज्ञा के उल्लंघन करने का होता है। साधु-साध्वी को रास्ते में किस तरह चलना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं १ बृहत्कल्प सूत्र, उ०४। २ निशीथ सूत्र , उ १२। ३ समवायांग सूत्र, २१ । ४ स्थानांग सूत्र, स्थान ५, उ०२। उत्तराध्ययन सूत्र, ३६, ५०-५४। • ६ भगवती सूत्र, १८,८।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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