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________________ २५२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अह-अथ। पुण-फिर। एवं-इस प्रकार। जाणिजा-जाने कि यदि वह उपधि युक्त ही। पारए सिया-किनारे पर पहुंचने में समर्थ है। उदगाओ-पानी से। तीरं-तीर को। पाउणित्तए-प्राप्त करने के समर्थ है। तओ-तो तीर पर पहुंचकर। संजयामेव-संयम पूर्वक। उदउल्लेण वा-जल से भीगे हुए शरीर से अर्थात् जब तक शरीर से जल बिन्दु टपक रहे हैं या। ससिणिद्धेण वा-जल से उसका शरीर स्निग्ध है। काएण वा-या जब तक शरीर भीगा हुआ है तब तक। उदगतीरे-नदी के किनारे पर ही। चिट्ठिज्जा-ठहरे। से भिक्खू वा०-वह साधु या साध्वी। उदउल्लं वा-जलार्द्र-जब तक जल बिन्दु टपक रहे हों। कायं-तब तक उस भीगे हुए शरीर को।नो आमजिजाहाथ से स्पर्श न करे। नो पमजिज्जा-प्रमार्जित न करे तथा।संलिहिजा-पूंछे नहीं। निल्लिहिज वा-बार २ पोंछे नहीं, और। उव्वलिज वा-हाथ से मले नहीं तथा। उव्वट्टिजा वा-उबटन की भांति शरीर को मल कर मैल को उतारे नहीं। आयाविज वा पया०-सूर्य के थोड़े या अधिक आताप से शरीर को सुखाए भी नहीं। अह पु०-फिर इस प्रकार जाने कि। विगओदओ-मेरा शरीर जल बिन्दुओं से रहित और। छिन्नसिणेहे-स्नेह से रहित हो गया है । अर्थात् अब गीला नहीं रहा है। मे काए-मेरे शरीर से न तो जल बिन्दु टपक रहे हैं और न वह गीला ही है। तहप्पगारं-तथा प्रकार के। कार्य-शरीर को। आमजिज वा-हाथ से स्पर्श करे। जाव-यावत्। पयाविज्ज वा-धूप में आतापना दे। तओ-तदनन्तर।संजयामेव-संयमशील साधु। गामा-ग्रामानुग्राम। दूइज्जिज्जा-विचरे। ___मूलार्थ- साधु या साध्वी जल में बहते समय अप्काय के जीवों की रक्षा के लिए अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का एवं एक पैर से दूसरे पैर का और शरीर के अन्य अवयवों का भी स्पर्श न करे। इस तरह वह परस्पर में स्पर्श न करता हुआ जल में बहता हुआ चला जाए वह बहते समय डुबकी भी न मारे, एवं इस बात का भी विचार न करे कि यह जल मेरे कानों में, आंखों में, नाक और मुख में प्रवेश न कर जाएगा। तदनन्तर जल में बहता हुआ साधु यदि दुर्बलता का अनुभव करे तो शीघ्र ही थोड़ी या समस्त उपधि का त्याग कर दे वह उस पर किसी प्रकार का ममत्व न रखे। यदि वह यह जाने कि मैं उपधि युक्त ही इस जल से पार हो जाऊंगा तो किनारे पर आकर जब तक शरीर से जल टपकता रहे, शरीर गीला रहे तब तक नदी के किनारे पर ही ठहरे किन्तु जल से भीगे हुए शरीर को एक बार या एक से अधिक बार हाथ से स्पर्श न करे, मसले नहीं और न उद्वर्तन की भांति मैल उतारे, इसी प्रकार भीगे हुए शरीर और उपधि को धूप में सुखाने का भी प्रयत्न न करे। वह यह जान ले कि मेरा शरीर तथा उपधि पूरी तरह सूख गई है तब अपने हाथ से शरीर का स्पर्श या मर्दन कर एवं धूप में खड़ा हो जाए फिर किसी गांव की ओर अर्थात् विहार कर दे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में मुनि की अहिंसा साधना का विशिष्ट परिचय दिया गया है। इसमें बताया गया है कि नाविक द्वारा जल में फैंके जाने पर भी मुनि अपने जीवन की ओर विशेष ध्यान नहीं देता। उसे अपने जीने एवं मरने की परवाह नहीं है। परन्तु, ऐसी विकट परिस्थिति में भी वह अन्य जीवों की दया का पूरा-पूरा ध्यान रखता है। उसके जीवन के कण-कण में दया का दरिया प्रवहमान रहता है। वह नदी में बहता हुआ भी अपने हाथों एवं पैरों का तथा शरीर के अन्य अंग-प्रत्यंगों का इसलिए परस्पर स्पर्श नहीं करता है कि इससे अप्कायिक जीवों की एवं उसमें स्थित अन्य प्राणियों की हिंसा न हो। इसी दया भावना से न वह डुबकी लगाता है और न अपने कान, नाक, आंख आदि में भरते हुए पानी को ही निकालता है। इस तरह वह यत्नापूर्वक बहता चलता है।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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