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________________ करना २५० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध जल में फैंक दे, तो जल में गिरा हुआ साधु मन में हर्ष-शोक न करे। वह मन में किसी तरह का संकल्प-विकल्प भी न करे और उनकी घात-प्रतिघात करने का तथा उनसे प्रतिशोध लेने का विचार भी न करे, इस तरह वह मुनि राग-द्वेष से रहित होकर समाधिपूर्वक जल में प्रवेश कर जाए। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में साधु को हर परिस्थिति में समभाव बनाए रखने का आदेश दिया गया है। साधुता का आदर्श ही यह है कि वह दुःखों की तपती हुई दोपहरी में भी समभाव की सरस धारा को न सूखने दे। अपने आदेश का पालन होते हुए न देखकर यदि कोई नाविक उसे नदी की धारा में फैंकने की योजना बनाए और साधु उसे सुन ले तो उस समय साधु उस पर क्रोध न करे और न उसका अनिष्ट करने का प्रयत्न करे, प्रत्युत वह उससे मधुर शब्दों में कहे कि तुम मुझे फैंकने का कष्ट क्यों करते हो। यदि मैं तुम्हें बोझ रूप प्रतीत होता हूँ और तुम मुझे तुरन्त नौका से हटाना चाहते हो तो लो मैं स्वयं ही सरिता की धारा में उतर जाता हूँ। उसके इतना कहने पर भी यदि कोई अज्ञानी नाविक उसका हाथ पकड़कर उसे जल में फैंक दे, तो साधु उस समय शांत भाव से अपने भौतिक देह का त्याग कर दे। परन्तु, उस समय उन व्यक्तियों पर मन से भी क्रोध न करे और न उनसे प्रतिशोध लेने का ही सोचे और उन्हें किसी तरह का अभिशाप भी न दे और न दुर्वचन ही कहे। .. प्रस्तुत सूत्र में साधुता के आदर्श एवं उज्ज्वल स्वरूप का एक चित्र उपस्थित किया गया है। साधु की इस विराट् साधना का यथार्थ रूप तो अनुभव गम्य ही है, शब्दों के द्वारा उस स्वरूप को प्रकट कठिन ही नहीं. असम्भव है। आत्मा के इस विशद्ध आचरण के सामने दनिया की सारी शक्तियां निस्तेज हो जाती हैं। इसके प्रखर प्रकाश के सामने सहस्र-सहस्र सूर्यों का प्रकाश भी धूमिल सा प्रतीत होता है। आत्मा की यही महान् शक्ति है जिसकी साधना करके मानव आत्मा से परमात्मा बनता है, साधक से सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। इस सूत्र में सचेलक साधु को ही निर्देश करके यह आदेश दिया गया है। क्योंकि, जिनकल्पी मुनि मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण ही रखते हैं, परन्तु, यहां पर वस्त्रों को फैलाकर फिर उन्हें समेटने का आदेश दिया गया है। इससे यही स्पष्ट होता है कि यह पाठ स्थविर कल्पी मुनि को लक्ष्य करके कहा गया है। परन्तु, सूत्रकार ने प्रस्तुत प्रकरण में वस्त्र की तरह पात्र का स्पष्ट उल्लेख क्यों नहीं किया, यह विद्वानों के लिए विचारणीय है। यदि कोई नाविक साधु को जल में फैंक दे तो उस समय उसे क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से भिक्खू वा० उदगंसि पवमाणे नो हत्थेण हत्थं पाएण पायं काएण कायं आसाइज्जा, से अणासायणाए अणासायमाणे तओ सं० उदगंसि पविजा॥से भिक्खूवा. उदगंसि पवमाणे नो उम्मुग्गनिमुग्गियं करिजा, मामेयं उदगं कन्नेसु वा अच्छीसु वा नक्कंसि वा मुहंसि वा परियावजिजा, तओ० संजयामेव उदगंसि पविजा॥ से भिक्खू वा उदगंसि पवमाणे दुब्बलियं
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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