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________________ तृतीय अध्ययन, उद्देशक २ २४९ पदार्थ- णं-वाक्यालंकार में है । से- वह । परो नावागए - नौका पर सवार नाविक । नावागयं-यदि नौका पर चढ़े हुए अन्य गृहस्थ को । वएज्जा - इस प्रकार कहे । णं-वाक्यालंकार में है । आउसंतो- हे आयुष्मन् गृहस्थ। एस - यह । समणे - साधु । नावाए - नौका में बैठा हुआ साधु । भंडभारिए भवइ-चेष्टारहित भाण्डोपकरण की भांति भार रूप है। णं - प्राग्वत् । से इसको । बाहाए-भुजाओं से । गहाय-पकड़कर । नावाओ-- - नाव से बाहर । उदगंसि ज‍ - जल में पक्खिविज्जा - फैंक दो- गिरा दो । एयप्पगारं - इस प्रकार के । निग्घोसं-निर्घोष शब्द को । सुच्चा सुनकर। निसम्म - दिल में विचार कर । य-फिर । से- वह साधु । चीवरधारी सिया-यदि वस्त्रधारी हो तो । खिप्पामेव-जल्दी ही । चीवराणि वस्त्रों को । उव्वेढिज्जा-पृथक् कर दे । वा अथवा । निवेढिज्जा वा एकत्र कर उन्हें भली- भान्ति बान्ध ले या । उप्फेसं वा करिज्जा - सिर पर लपेट ले । अह पुणेवं जाणिज्जा और फिर इस प्रकार जाने । खलु निश्चयार्थक है। अभिकंतकूरकम्मा - अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाला । बाला ये अज्ञानी जीव । बाहाहिं हाय - मुझे - भुजाओं से पकड़ कर । नावाओ - नौका से बाहर । उदगंसि - जल में । पक्खिविज्जागिरावेंगे। से- वह साधु । पुव्वामेव उससे पूर्व ही उनके प्रति इस प्रकार । वइज्जा - कहे । आउसंतो गाहावईआयुष्मन् गृहस्थो ! मेत्तो- मुझे इस नौका से । बाहाए-गहाय-भुजाओं से पकड़ कर । नावाओ - नौका से बाहर । उदगंसि - जल में । मा पक्खिवह-मत फैंको । च- फिर । एव-निश्चय । णं-वाक्यालंकार में है। अहं मैं । सयंस्वयं ही । नावाओ - तुम्हारी नौका से । उदगंसि-उ - जल में । ओगाहिस्सामि- - उतर जाऊंगा। से- उस साधु । णंप्राग्वत्। एवं-इस प्रकार। वयंतं-बोलते हुए यदि । परो- अन्य गृहस्थ । सहसा - साहस पूर्वक शीघ्र ही । बलसाबलपूर्वक । बाहाहिं गहाय - उसे भुजाओं से पकड़ कर । पक्खिविज्जा - जल में फैंक दे। तं तो वह साधु । सुमणेश्रेष्ठ मन वाला। नो सिया-न हो तथा । दुम्मणे- दुष्ट मन वाला भी। नो सिया-न होवे और नो उच्चावयं मणं नियंछिज्जा - अपने मन को ऊंचा-नीचा भी न करे तथा । तेसिं बालाणं - उन बाल अज्ञानी जीवों का। घायाएघात करने के लिए। वहाए - वध करने के लिए भी। नो समुट्ठिज्जा - उद्यत न हो अर्थात् उनके विनाश का उद्योग न करे किन्तु । अप्पुस्सुए-राग-द्वेष से रहित होकर। जाव- यावत् । समाहीए -समाधि से संयम में विचरे । तओतदनन्तर । सं०-साधु । उदगंसि जल में । पविज्जा-शांति पूर्वक प्रविष्ट हो जाए, तात्पर्य यह है कि जल में बहता हुआ मन में उन गृहस्थादि के प्रति किसी प्रकार का राग-द्वेष न रखे। मूलार्थ - यदि नाविक नौका पर बैठे हुए किसी अन्य गृहस्थ को इस प्रकार कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! यह साधु जड़ वस्तुओं की तरह नौका पर केवल भार भूत ही है। यह न कुछ सुनता है और ना कोई काम ही करता है । अतः इसको भुजा से पकड़ कर इसे नौका से बाहर जल में फेंक दो। इस प्रकार के शब्दों को सुनकर और उन्हें हृदय में धारण करके वह मुनि यदि वस्त्रधारी है तो शीघ्र ही वस्त्रों को फैलाकर, फिर उन्हें अपने सिर पर लपेट कर विचार करे कि ये, अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाले अज्ञानी लोग मुझे भुजाओं से पकड़कर नौका से बाहर जल में फेंकना चाहते हैं। ऐसा विचार कर वह उनके द्वारा फैंके जाने के पूर्व ही उन गृहस्थों को सम्बोधित करके कहे कि आयुष्मन् गृहस्थो ! आप लोग मुझे भुजाओं से पकड़ कर जबरदस्ती नौका से बाहर जल में मत फैंको । मैं स्वयं ही इस नौका को छोड़ कर जल में प्रविष्ट हो जाऊंगा। साधु के ऐसे कहने पर भी यदि कोई अज्ञानी जीव शीघ्र ही बलपूर्वक साधु की भुजाओं को पकड़ कर उसे नौका से बाहर
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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